हिमालयी राज्यों में निरंतर बढ़ती प्राकृतिक आपदाएं न केवल उन राज्यों के लोगों के लिए बल्कि पूरे देश के लिए चिंता का सबब और चुनौती बनी हुई है। ‘हिमधरा’ पर्यावरण समूह की रिपोर्ट ‘हिमालय में आपदा-निर्माण: भूस्खलन-ग्रस्त किन्नौर में जीवन कल आज और कल’ इस चुनौती का सामना करने के लिए अंधेरे में टिमटिमाते दीए की तरह है।
हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में भूस्खलन के खतरों पर सामुदायिक दृष्टिकोण पर केंद्रित ‘हिमधरा’ की इस रिपोर्ट का निष्कर्ष यह है कि हिमालयी राज्यों में बढ़ती आपदाओं पर अंकुश लगाने के लिए ग्राम पंचायतों और स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर योजनाएं बनानी होंगी और स्थानीय लोगों के पारंपरिक ज्ञान को विकास का आधार बनाना होगा।
रिपोर्ट इस तथ्य पर प्रकाश डालती है कि देश में आपदा नीति और कानून 2005 बन जान के बाद भी सरकार आपदाओं के ‘प्रबंधन’ और तात्कालिक राहत से आगे नहीं बढ़ पाई है, जबकि आपदाओं की हालिया घटनाओं से साफ हो गया है कि वैज्ञानिक तथ्यों की अनदेखी की वजह से आपदाएं बढ़ रही हैं। हिमधरा ने यह रिपोर्ट ऑनलाइन प्रेस वार्ता में जारी की है।
प्रेसवार्ता में हिमधरा की प्रतिनिधि हिमशी सिंह ने कहा कि संस्था ने प्राकृतिक आपदाओं के अध्ययन के लिए किन्नौर के बहु-जोखिम क्षेत्र को चुना था, जहां सरकार द्वारा 1500 से अधिक भूस्खलन संभावित स्थलों की पहचान की गई है। अययन के दौरान किन्नौर के तीन अलग-अलग उप-जलवायु क्षेत्रों के 22 गांवों में लोगों से बातचीत क गई। मई 2023 में रिकांग पियो में एक सार्वजनिक परामर्श आयोजित किया गया। अध्ययन का उद्देश्य जोखिम-ग्रस्त परिदृश्य में रहने के बारे में स्थानीय समुदाय की धारणाओं को समझना था।
उन्होंने कहा कि भूस्खलन संभावित क्षेत्र में जनजातीय बहुल है, जिन्होंने पारंपरिक ज्ञान और जीवन के अनुभवों का विस्तृत संकलन किया गया। लेकिन आज तक विकास योजनाएं एवं नीतियां बनाते समय और आपदा व जलवायु सम्बंधित उनके अनुभवों और ज्ञान को महत्व नहीं दिया गया।
हिमधरा का निष्कर्ष है कि हिमालय को स्वाभाविक रूप से ‘नाजुक’ और वैश्विक जलवायु संकट का शिकार बता कर इन आपदाओं को प्राकृतिक और आकास्मिक दर्शाया जाता है। इसमें स्थानीय संदर्भ में आपदा और जलवायु जोखिम को बढ़ाने वाले ऐतिहासिक कारकों और सामजिक आर्थिक प्रक्रियाओं और सरकारी नीतियों के प्रभाव को छुपा दिया जाता है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि किन्नौर के विविधतापूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र में लचीला बनाने और अस्तित्व को कायम रखने कीे परम्पराएं तेजी से बदल रही हैं। स्थानीय भोटी भाषा के गीत और उनके रीति-रिवाज भौगोलिक और जलवायु ज्ञान की जानकारी देते हैं। अतीत में पहाड़ी खतरों- भूस्खलन और बाढ़, को लेकर लोगों की मजबूत स्थानीय चेतना थी, जो मौखिक इतिहास, भाषा, सांस्कृतिक और सामाजिक प्रथाओं में साफ दिखती हैं। आधुनिक विज्ञान की चकाचौंध और शासन की पारंपरिक ज्ञान की उपेक्षा से उसका नुकसान हुआ है।
हिमधरा से जुड़े प्रकाश भंडारी ने कहा, “आजादी के बाद किन्नौर में कल्याणकारी नीतियों और संरचना के विकास की शुरुआत हुई। 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद तिब्बत से व्यापार पर रोक, अनुसूची-5 क्षेत्र की घोषणा, भूमि सुधार और बागवानी पर जोर देने जैसी प्रक्रियाएं हुई, जिससे नए अवसर तो खुले, लेकिन महत्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक बदलाव भी आए।”
लेकिन सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण और विशिष्ट भौगोलिक-सांस्कृति परिवेश वाले इस क्षेत्र का बड़ा नुकसान 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण की नीति अपनाए जाने के बाद हुआ है जबकि नकदी आधारित बागवानी और वाणिज्यिक खेती को बढ़ावा दिया गया और मुख्य भौतिक संसाधन- जल के दोहन की नीतियां बनाई गईं। इस बीच 4,000 मेगावाट की क्षमता वाली 30 छोटी-बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण के कारण भूमि उपयोग में तेजी से बदलाव आया। जलविद्युत परियोजनाओं और ट्रांसमिशन लाइनों के लिए किन्नौर वन प्रभाग में 90 प्रतिशत वन भूमि का हस्तांतरण किया गया है, जिससे आधिकारिक तौर पर 11,500 से अधिक पेड़ नष्ट हुए हैं।
प्रेसवार्ता में हिमधरा के प्रतिनिधियों ने कहा कि भूमि उपयोग में बदलाव और जलवायु परिवर्तन के दोहरे कारणों से किन्नौर में भूस्खलन और बाढ़ जैसी लगातार आपदाएं बढ़ी हैं। तापमान बढ़ने से हिमनद तेजी से पिघले हैं जिससे सतलुज घाटी की झीलों में 97 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। मूरंग और पूह क्षेत्र, कटाव और भूस्खलन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं, 67 प्रतिशत भूस्खलन-ग्रस्त क्षेत्र के साथ, इन क्षेत्रों में प्रस्तावित जलविद्युत परियोजनाओं से खतरा है।
रिपोर्ट में हिमाचल सरकार के आंकड़ों के हवाले से कहा गया है कि 2007 से 2015 के बीच किन्नौर जिले की लगभग 26,257 हेक्टेयर भूमि को अलग-अलग आपदाओं से नुकसान पहुंचा है। इसमें सबसे अधिक नुकसान 2013 की बाढ़ से हुआ, जिसमें 12,000 से अधिक पशु मरे और 63,000 पेड़ भूस्खलन और आपदाओं की भेंट चढ़ गए थे।
हिमधरा ने अपनी रिपोर्ट में हिमालयी क्षेत्रों को भौतिक आपदाओं से बचाने के लिए कई सुघाव भी पेश किए हैं, जो कि न केवल किन्नौर अथवा हिमाचल प्रदेश बल्कि कश्मीर, लद्दाख, उत्तराखंड, सिक्किम और पूर्वोत्तर के राज्यों में हिमालयी राज्यों पर लागू होते हैं। खासकर पड़ोसी राज्य उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्रों की स्थिति, जो कि भौगोलिक, सामाजिक और सामरिक तौर पर किन्नौर से पूरी तरह मेल खाती हैं, के लिए ये सुझााव अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्र सहित सभी हिमाख्लयी राज्यों की सरकारें हिमधरा की प्रस्तुत रिपोर्ट को गंभीरता से लेंगी।
इन्द्र चन्द रजवार

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