कृषि श्रमिक (agriculture labour) अथवा खेज मजदूर (farm
labour) भारत की श्रमशक्ति का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। सामान्यतः
भूमिहीन किसान कहा जाने वाला यह समूह बड़े किसानों के खेतों में काम करके अपना और
अपने परिवार का भरण-पोषण करता है। अशिक्षा, गरीबी और दरिद्रता का सामना करता यह समूह और निराशा-हताशा के कारण आत्महत्याजन्य स्थिति के मुहाने पर खड़ा है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (National Crime Record Berau) यानी
एनसीआरबी की ताजा रिपोर्ट ‘एक्सीडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड्स इन
इंडिया 2023’ (Accidental Deaths and Suicides in India 2023) के अनुसार, हाल के वर्षों में खेत मजदूरों में आत्महत्या की प्रवृति चिंताजनक गति से
बढ़ी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2023 में भारत में कृषि क्षेत्र में
10,786 आत्महत्याएं हुई हैं, जिसमें 6,096 कृषि श्रमिक और 4,690 किसान थे। अर्थात वर्ष 2023 में देश में प्रतिदिन औसतन 30 किसानों ने आत्महत्या की है।
एनसीआरबी रिपोर्ट के अनुसार 2023 में देश में हुई कुल 1,71,418 आत्महत्याएं हुई है, जो कि बीते वर्ष की तुलना में .03 प्रतिशत अधिक है। यह अत्यंत
चिंता का विषय है, इस पर अलग से
चर्चा की जा सकती है। फिलहाल. कृषि क्षेत्र की बात करें तो
आत्महहत्या करने वालों में 6.3 प्रतिशत किसान और खेत मजदूर
थे।
रिपोर्ट के अनुसार, 2023 में आत्महहत्या करने वाले 4,690 किसानों में से 4,553 पुरुष और 137 महिलाएं थीं, जबकि 6,096 कृषि श्रमिकों में 5,433 पुरुष और 663 महिलाएं थीं। हालांकि 2022 की तुलना में तो किसानों की
आत्महत्या में 10 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है लेकिन कृषि श्रमिकों की आत्महत्या में 0.20 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है।
कृषि श्रमिकों की मुश्किलें
सर्वविदित है कि कृषि भारत की
आर्थिक ही नहीं सामाजिक व्यवस्था का भी आधार है। ग्रामीण भारत में रहने वाली देश
की दो-तिहाई आबादी कृषि
पर निर्भर है। विभिन्न सरकारी एवं गैर.सरकारी संस्थानों के आंकड़ों के अनुसार देश
का लगभग 58 प्रतिशत कार्यबल कृषि और संबद्ध क्षेत्रों पर निर्भर है। इस आबादी और क्षेत्र का 2022-23 मेंए देश की सकल घरेलू उत्पाद
में (GDP) में 18.4 प्रतिशत योगदान रहा।
कृषि पर निर्भर इस आबादी का बड़ा
हिस्सा उन खेत मजदूरों का है, जो भूमिहीन हैं या फिर नाममात्र की भूमि के मालिक हैं। 2001 की जनगणना के समय ऐसे खेतिहर
मजदूरों की कुल संख्या 23.41 करोड़ थी, जो 2011 में बढ़कर 26.30 करोड़ हो गई। हालांकि उसके बाद
के सटीक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन ग्रामीण भारत की स्थितियों में आए बदलाव के आधार पर कहा
जा सकता है कि यह संख्या इस बीच तेजी से
बढ़ी है।
खेत मजदूर मुख्य रूप से अपने
आसपास के गांवों या अपने जिले अथवा राज्य
में ही बड़े किसानों के खेतों में काम करते हैं लेकिन एक बड़ा हिस्सा दूसरे
राज्यों में जाकर काम,करता है। मसलन
उत्तर प्रदेश, राजस्थान एवं मध्य प्रदेश में खेत मजदूर
उन्हीं राज्यों के पिछड़े खेत्रों से आते हैं जबकि पंजाब,
तहरियाणाए महाराष्ट्र आदि राज्यों में खेत मजदूर उत्तर प्रदेश. बिहार,
ओडिशा, झारखंड आदि राज्यों से आते हैं।
प्रवासी मजदूर कहे जाने वाले ये लोग फसल के बाद या तो अपने गांव लौट जाते हैं या
फिर वहीं रहकर किसी तरह आजीविका चलाते हैं।
आज जहां हमारा देश का नेतृत्व
भारत के दुनिया की पांचवी अर्थव्यवस्था होने का प्रचार कर आने वाले समय में चौथी
या तीसरी अर्थव्यवस्था होने का दावा कर रहा है वहीं कृषि श्रमिक कों के रूप में
देश की बड़ी आबादी दो वक्त की रोटी का जुगाड़ न कर पाने से आत्महत्याजन्य स्थिति का
सामना कर रही है। उसे हमारे नेताओं के इस दावे से कोई फर्क नहीं पड़ता कि भारत
दुनिया की तीसरी आर्थिक महाशक्ति या विश्वगुरु बन जाएगा।
खेत मजदूर देश की श्रमशक्ति का
वह तबका है जिसकी गिनती न केवल अकुशल मजदूरों में होती है बल्कि शिक्षा से भी
वंचित है। इसे अनियमित रोजगार, कम मजदूरी, उच्च ऋणग्रस्तता और कुपाषण
जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। बाल और महिला श्रम को लेकर संवैधानिक निषेध
जैसी बातें इनके लिए बेईमानी है। इन्हें जीवन यापन की बुनियादी जरूरतों से लेकर
न्यूनतम स्वास्थ्य सुविधाओं तक के लिए उच्च ब्याज दरों पर साहूकारों से ऋण लेने के
लिए मजबूर होना पड़ता है, जिससे वे गरीबी के दुष्चक्र में फंस
कर रह जाते हैं।
ऐसे ही भूमिहीन और अकुशल खेत
मजदूरों को ध्यान में रखकर में भारत सरकार
2005 में मनरेगा ले आई थी. जिसमें
जरूरतमंदों को साल में कम से कम 100 दिन रोजगार देने का कानूनी
प्रावधान था। कोविड महामारी के समय देशव्यापी लॉकडाउन के कारण शहरों में कलकरखाने
और व्यापार बंद हो गया था था तो इसी योजना ने शहरों से गांव लौटै प्रवासी मजदूरों
को सहारा दिया था। इसके बावजूद वर्तमान सरकार ने मनरेगा की उपेक्षा कर उसके बजट में कमी की है। इससे भी खेत मजदूरों की
मुश्किलें बढ़ी है।
आत्महत्या करने वालों में संपन्न राज्यों के किसान अधिक
हैरानी की बत यह है कि किसानों
और कृषि मजदूरों ने आत्म्हत्याएं उन राज्यों में अधिक की है जो अपेक्षाकृत संपन्न
हैं और कृषि क्षेत्र में नवोन्मेषी प्रयोगों के लिए जाने जाते हैं। एनसीआरबी
रिपोर्ट में सर्वाधिक 2,518 किसानों की आत्म्हत्या महाराष्ट्र में दर्ज हैं। इसके बाद कर्नाटक में 1,425, आंध्र प्रदेश
में 201, पंजाब में 141, मध्य प्रदेश में 64, छत्तीसगढ़ में 73, तमिलनाडु में 67 और तेलंगाना में 56 में किसानों ने आत्महत्या की।
इसके विपरीत पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा, झारखंड, हिमाचल प्रदेश,
अरुणाचल प्रदेश, गोवा, मणिपुरए मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा में कृषि क्षेत्र में कोई
आत्हत्या नहीं हुई। सबसे चौंकाने वाली यह है कि दादरा नगर हवेली एवं दमन व दीव में
किसानों की आत्महत्या में 50 प्रतिशत उछाल देखने को मिला है।
देश के सभी केंद्र शासित प्रदेशों में 2022 में आठ कुल 10 आत्महत्या हुई थीं जो 2023 में बढ़कर 22 हो गईं हैं।
कृषि श्रमिकों की आत्महत्या के
मामले में भी महाराष्ट्र सबसे आगे हैं, जहां 2023 में 1,633 कृषि श्रमिकों ने आत्महत्या की
है। जबकि कर्नाटक में 998, मध्य प्रदेश में 683, आंध्र प्रदेश में 724, तमिलनाडु में 564, छत्तीसगढ़ में 395 और उत्तर प्रदेश में 321 आत्महत्याएं दर्ज की गई हैं।
वहीं 8 केंद्र शासित प्रदेशों में 2023 में 32 कृषि श्रमिकों आत्महत्या की है
सर्वाधिक 13 आत्महत्याएं जम्मू एवं कश्मीर
में हुई हैं। 2022 में इन केंद्र शासित प्रदेशों में कुल 15 कृषि श्रमिकों ने आत्महत्याएं
की थीं।
किसान संगठनों ने भी किया है नजर अंदाज
आंकड़ों से पता चलता है कि कृषि
क्षेत्र में आत्महत्याओं का मुख्य कारण कृषि सहित संपूर्ण अर्थ व्यवस्था में आया
बदलाव है, जिनमें कृषि के
मशीनीकरण के अनुरूप कृषि श्रमिकों में तकनीकी शिक्षा का अभाव और श्रम की तुलना में पूंजी को अधिक
बढ़ावा दिया जाना प्रमुख हैं। हाल के वर्षों में केंद्रीय योजना के लाभ के लिए कठोर नियम बना दिए जाने से भी खेत
मजदूरों की मुश्किलें बढ़ी हैं।
चिंता की बात तो यह है कि देश
की की किसी भी राजनैतिक पार्टी, किसान संगठन व और श्रमिक संगठन ने आज तक खेत मजदूरों की इस
समस्याओं को गंभीरता से नहीं उठाया है। अधिकतर किसान संगठन खाद और बीजों की कीमतों, सिंचाई सुविधाओ और खाद्य उपजों की कीमतों से जुड़े सवालों को उठाते हैं
लेकिन खेत मजदूरों की मजदूरी और उनके जीवन स्तर में सुधार के सवाल नहीं उठाते। इसी
तरह किसी सार्वजनिक योजना या विकास परियोजना के लिए कृषिभूमि के अधिग्रहण पर
किसानों के मुआवजे का सवाल उठाते हैं लेकिन कृषिभूमि के अधिग्रहण से खेत मजदूरों
पर पड़ने वाले प्रभावों को नजरअंदाज कर देते हैं।
Source:
https://hindi.downtoearth.org.in/agriculture/suicides-by-agricultural-workers-increased-in-2023-ncrb
https://docs.google.com/document/d/1qnLMmL_EVYHDLCGQWQfNnq6qxtdU5rVZ-oKeHiPvisQ/edit?tab=t.0
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