हिमालय खतरे में है, यह बात बीते 50-55 सालों से बराबर कही जा रही है। ’70 के दशक में विश्वप्रसिद्ध ‘विपको’ आंदोलन के कारणों में एक
यह चिंता भी थी। 2010 के बाद हिमालयी क्षेत्रों में भौतिक आपदाओं - अतिवष्टि, भूस्खलन, बाढ़, आदि में हुई वृद्धि ने इसे और भी गहरा दिया है। यही कारण है कि हिमालय को बचाने के लिए देश के
प्रबुद्ध राजनेताओं, वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा ख्टखटाना पड़ा है।
उत्तराखंड,
हिमाचल प्रदेश, जम्मू.कश्मीर और पंजाव में भूस्खलन एवं बाढ़ से हुई तबाही ने हिमालय की
सुरक्षा को लेकर एक बार फिर सवाल किए हैं। इसी पृष्ठभूमि में हिमालय की सुरक्षा को
लेकर पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. मुरली
मनोहर जोशी. एवं डॉ. करण सिंह. पर्यावरणविद शेखर पाठक और इतिहासकार रामचंद्र गुहा सहित 57 प्रबुद्ध नागरिकों ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की है, जिनमें कई प्रतिष्ठिति राजनेता, वैज्ञानिक, पर्यावरणविद और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं।
अपीलकर्ताओं ने देश के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष दो
मांगें रखी हैं। एक, उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 51-ए (जी) का
हवाला देते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट चारधाम ऑल वेदर यानी चार धाम परियोजना पर तत्काल
रोक लगाए और परियोजना पर पुनर्विचार किया जाए; और दूसरी,
सरकार को 2020 के परिपत्र को निरस्त कर दिसंबर 2021 के निर्णय को वापस लेकर 2018 की नीति बहाल करने का निर्देश दे; जिसमें 5.5 मीटर चौड़ी इंटरमीडिएट सड़क की सिफारिश
की गई थी।
उन्होंने कहा है कि 2021 का निर्णय हिमालय की
नाजुक पारिस्थितिकी और स्थानीय समुदायों की सुरक्षा के लिए विनाशकारी साबित हुआ
है। सड़कों के चौड़ीकरण के नाम पर बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई हुई है और भूस्खलन
एवं हिमस्खलन का खतरा बढ़ा है। सर्वोच्च न्यायालय से की गई मांग में उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि गंगा-हिमालय
बेसिन 60 करोड़ लोगों का जीवन-आधार है। यदि हिमालय नष्ट होता
है तो पूरा देश प्रभावित होगा।
सभी सरकारों ने की है हिमालय की उपेक्षा
सह सच है कि हिमालय को बचाने के लिए इतनी बड़ी संख्या
में विभिन्न विचारधाराओं से जुड़े लोगों ने पहली बार सुप्रीम कोर्ट से अपील की है। जम्मू-कश्मीर
से लेकर पूर्वोत्तार के राज्यों के लोग दशकों से यह मांग उठाते आए हैं। विभिन्न
समुदायों द्वारा राजनैतिक स्वायत्तता दिए जाने की मांग भी काफी हद तक इसी से जुड़ी
है, ताकि वे प्राकृतिक संरचना एवं
सामाजिक व्यवस्था के आधार पर नियोजन एवं विकास योजनाओं के क्रियान्वयन का निर्णय
ले सकें। यानी प्रकृति की सुरक्षा के सुनिश्चित करते हुए स्थानीय स्तर पर उपलब्ध
भौतिक संसाधनों के उपयोग का निर्णय स्वयं ले सकें।
सरकार चाहे किसी भी पार्टी की रही हो हिमालयी
समुदायों की इस मांग की हमेशा उपेक्षा की गई। यह दूसरा विषय है कि वर्तमान सरकार
का रवैया इसे लेकर निहायत ही दमनात्मक है। पर्यावरणविद, जलवायु कार्यकर्ता, शिक्षाविद और वैज्ञानिक सोनम वांगचुक की देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तारी और
स्वायत्तता की मांग कर रहे लद्दाखियों का दमन इसका ताजा उदाहरण है।
हिमालय की चेतावनियों को भी नकारा गया
वस्तुतः हिमालय की सुरक्षा का प्रश्न इससे कहीं बड़ा
है। निःसंदेह इसकी पहचान सबसे पहले उसी उत्तराखंड ने की थी, जिसे 2013 में हिमालयी क्षेत्र की अब तक की सबसे बड़ी केदारनाथ आपदा का सामना करना पड़ा था।
उस वर्ष उत्ताखंड में भूस्खलन की दर्जनों घटनाएं हुई थीं जिनमें हजारों लोगों की
मृत्यु हुई। लेकिन प्रसिद्ध तीर्थस्थल होने एवं मरने एवं प्रभवित होने वालों में
देशभर के लोग होने के कारण उसे केदारनाथ आपदा के रूप में ही जाना गया। सरकारी आंकड़ों
के अनुसार, 2013 में केदार
घाटी में ही 4700 से अधिक यात्रियों के शव बरामद हुए और 5000 से अधिक लापता
हो गए थे। इस राज्यव्यापी आपदा में कितने स्थानीय लोगों की मृत्यु हुई, इसका आज तक पता नहीं चल पाया है।
यदि अगले वर्ष यानी 2014 में कश्मीर और 2015 में असम में बाढ़ की न आई होती तो संभव है हिमालय की
सुरक्षा का प्रश्न उत्तराखंड तक सिमट कर रह गया होता। केदारनाथ आपदा मानसून से पहले जून के
मध्य में आई थी जबकि कश्मीर में बाढ़ मानसून के अंतिम चरण - सिंतबर में आई थी। इसमें से 100 अधिक लोगों की मृत्यु हुई थी, 450 गांव जलमग्न हो गए और जम्मू-कश्मीर के 2.500 गांव प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित थे। असम की
बाढ अगस्त 2015 में आई थी। इस विनाशकारी बाढ़ ने निचले असम में में
लगभग 17,00,000 लोगों को प्रभावित किया। असम आपदा के कारणों और उससे
हुए नुकसान का अध्ययान करने के लिए अंतर संस्थानिक समूह (Inter Agency
Group) का गठन किया था,
जिसमें विभिन्न सरकारी विभागों, स्वैच्छिक संगठनों और सिविल सोसाईटीज के प्रतिनिधि
शामिल थे।
ये तीनों घटनाएं हिमालय के खतरे और उसकी चेतावनी को
समझने और हिमालयी क्षेत्र में निर्माण-विकास की नीतियों पर पुनर्विचार के लिए
पर्याप्त थीं। लेकिन भौतिक संपदाओं के दोहन पर आधारित विकास के रहनुमाओं ने इन
तीनों घटनाओं को जनवायु परिवर्तन से जोड़ते हुए अपने कर्तव्य की न केवल इतिश्री कर
ली उल्टे हिमालय के दोहन को पहले से भी तेज कर दिया। इसकी पुष्टि दिसंबर 2016 में चारधाम ऑल वेदर परियोजना की स्वीकृति से भी इसकी पुष्टि होती है।
एकमात्र कारण नहीं है जलवायु परिवर्तन
स्पष्ट है कि हिमालयी क्षेत्र की आपदाओं को केवल ‘जलवायु परिवर्तन का संकट’ कहकर
नहीं टाला जा सकता निश्चित ही जलवायु
परिवर्तन (Climate Change) एक बड़ी चुनौती है। इसके लिए
तत्काल ठोस और निर्णायक पहल की आवश्यकता है। लेकिन तात्कालिक राजनैतिक और आर्थिक मुनाफे के
लिए जलवायु परिवर्तन का बहाना बना कर न केवल हिमालय को बल्कि पूरे देश को धोखा
देना है। उत्त्राखंड समेत सभी हिमालयी राज्यों की स्थिति और विकास योजनाओं से
स्पष्ट हो चुका है कि प्राकृतिक आपदाओं की मुख्य वजह उन नीतियों में निहित है
जिसका एक मात्र उद्देश्य पहाड़ों का दोहन करना है, वह चाहे
भौतिक संसाधनों का दोहन हो या मानव संसाधनों का।
दुर्भाग्यवश, ये विनाशकारी नीतियां स्थानीय समुदायों और परम्पराओं को
नजरंदाज कर पहाड़ों में लागू की जा रही हैं, जो पहाड़ों को
भौतिक तौर पर नहीं सांस्कृतिक तौर पर भी
को खोखला कर रही हैं। उत्तराखंड के लोग इस समस्या की भयावहता को अलग राज्य बनने से
पहले ही समझ गए थे। यही कारण है कि उन्होंने एक ऐसे राज्य की कल्पना की थी जहां कि स्थानीय
प्राकृतिक संपदाओं के उपयोग के निर्णय का अधिकार स्थानीय लोगों को प्राप्त हो।
प्रकारांतर में लद्दाख के लोग भी तो आज यही मांग रहे हैं।
देखना यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट देश के प्रबुद्ध राजनेताओं, वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की याचिका पर सुनवाई करते हुए इस
तथ्य पर विचार करेगा? अथवा 2018 के निर्णय राज्य को बीच का रास्ता अपनाने की छूट देगी, ताकि सरकार मौका मिलने पर फिर किसी प्रपत्र के जरिए हिमालय
के विनाशकारी दोहन को जारी रख
सके?
Source
https://hindi.downtoearth.org.in/climate-change/appeal-to-supreme-court-for-protection-of-himalayas
https://docs.google.com/document/d/1ZVnTmn_YJnUMGtxiWk7xJEkxnx_dpf9TB5Cc-aROmUE/edit?tab=t.0
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