‘बाचा: द राइजिंग विलेज’ एक आदिवासी बहुल गांव की प्रेरक कहानी






‘बाचा: द राइजिंग विलेज’ माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के सहायक प्राध्यापक
लोकेन्द्र सिंह और फिल्म निर्माता मनोज पटेल की एक छोटी-सी डॉक्युमेंट्री फिल्म है। यह फिल्म इन दिनों ग्रामीण विकास के नीति निर्माताओं से लेकर पारिस्थितिकी संतुलन और टिकाऊ के पैरोकारों के बीच चर्चा का विषय बनी हुई है। कारण, राष्ट्रीय ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज संस्थान, हैदराबाद द्वारा नवंबर, 2019 में आयोजित ‘नेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑन रूरल डेवलपमेंट’ में इसे द्वितीय पुरस्कार प्राप्त होना है। यह फिल्म हमें बताती कि किस तरह एक परंपरागत और अत्याधुनिक ज्ञान के माध्यम से एक अत्यंत पिछड़े और साधनहीन गांव की तकदीर बदल सकती है।
‘बाचा’ मध्यप्रदेश के बैतूल जिले का करीब 70-75 परिवारों वाला एक छोटा-सा आदिवासी बहुल गांव है। करीब चार साल पहले तक पीने के पानी और जलावन की लकड़ी जैसी मूलभूत समस्याओं का सामना कर रहा था। लेकिन आज बाचा न केवल मध्यप्रदेश बल्कि पूरे देश के लिए प्रेरणा स्रोत बन गया है। गांववासियों की लगन, सूझबूझ और वैज्ञानिक समझ ने गांव की तस्वीर ही नहीं तकदीर भी बदल डाली है। इसका श्रेय जाता है सामाजिक संस्था विद्या भारती के जुड़े समाजसेवी मोहन नागर को।
गांव में पीने और अन्य उपयोग के लिए पानी की किल्लत को देखते हुए मोहन नागर ने 2016-17 में गांववासियों को परंपरागत बोरी-बंधन के तरीके से बारिश के पानी को एकत्र करने के लिए प्रेरित किया। इस तकनीक से पहाड़ी-ढलान से आने वाले पानी को रेत की बोरियों की दीवार बनाकर एकत्र किया गया, इससे खेती और पशुओं के लिए पानी जमा हुआ और भू-जलस्तर ऊपर उठने लगा जिससे हैंडपंप से पीने का पानी भी आसानी से उपलब्ध होने लगा। इसके अतिरिक्त संग्रहित बारिश के पानी का उपयोग फसलों की सिंचाई में किया जाने लगा है। इसका परिणाम यह हुआ है कि कभी सिंचाई के अभाव में सूखे रहने वाले बाचा के खेत लहलहाते नजर आते हैं और पशुपालन में भी वृद्धि हुई है।
बाचा गांव में बोरी-बंधन तकनीक की कामयाबी के बाद समाजसेवी मोहन नागर से बड़े पैमाने पर जल संरक्षण के लिए गंगाअवतरण अभियान आरंभ किया। इस अभियान गांव के आस-पास की पहाड़ियों पर खंती खोद कर बारिश के जल को जमीन के भीतर भेजने का और पौधारोपण करने का आरंभ किया है। यह कार्य अभी भी जारी है।
परंपरागत ज्ञान से जल संकट को दूर करने के बाद गांव के लोगों ने मोीन नागर की प्रेरणा से प्राकृतिक ऊर्जा का दैनिक जीवन में उपयोग करने के लिए वैज्ञानिक पहल प्रारंभ की है। बाचा गांव में बिजली समस्या तो थी ही रसोई गैस की आपूर्ति भी बड़ी मुश्किल से हो पाती थी। गांव की महिलाओं का सबसे अधिक समय जंगल से जलावन लाने में बीत जाता था और उसमें असुरक्षा भी थी। मोहन नागर ने गांववालों को सौर ऊर्जा के बारे में जागरूक किया। उन्हें बताया कि कैसे सूर्य की ऊर्जा से बिजली और रसोई गैस/जलावन की समस्या को खत्म किया जा सकता है। लेकिन समस्या यह थी कि गांववालों को न तो सौर ऊर्जा के उपयोग की जानकारी थी और न ही प्लांट लगाने के लिए पैसा था। मोहन नागर ने ओएनजीसी से गांव में सौर ऊर्जा के लिए सीएसआर में तहत ग्रांट की मांग की, जिसे ओएनजीसी ने मान लिया, तत्पश्चात आईआईटी मुंबई से सौर ऊर्जा प्लांट लगाने और उसके उपयोग के लिए गांव के लोगों को प्रशिक्षित करने के लिए अनुरोध किया। आरंभ में गांव के लोगों को यह अत्याधुनिक तकनीक समझ में नहीं आई लेकिन जल्दी ही वे इसके लाभ को समझ गए और सौर ऊर्जा का उपयोग रोशनी के लिए ही नहीं सौर इंडक्शन से खाना बनाने के लिए भी होने लगा। आज बाचा गांव के सभी परिवारों का खाना सौर इंडक्शन से बनता है। गांव के सभी घरों में हजार वाट के सोलर पैनल लगे हैं, इसमें चार पैनल, चार बैटरी और एक चूल्हा शामिल है। ये पैनल बारिश के मौसम में सूरज की रौशनी नहीं मिलने पर भी बैटरी के बैकअप से 5-6 घंटे तक यह काम करता है।
विद्या भारती के माध्यम से मोहन नगर ने बाचा गांव में जो तीसरी योजना आरंभ की है, वह ‘अन्नपूर्णा मंडपम’ है। अन्नपूर्णा मंडपम का अर्थ है, घर का किचन गार्डन। अर्थात गांव के हर घर का एक गार्डन है जिसमें वे अपने दैनिक उपयोग की सब्जियां पैदा करते हैं। इससे न केवल ग्रामीणों को ताजा सब्जी मिल जाती है बल्कि हर परिवार की महीने के 500 से 1000 रूपए तक की बचत हो जाती है। इसी बीच संस्था यानी विद्या भारती ने बाचा गांव में स्वच्छ भारत मिशन अभियान के तहत कचरा प्रबंधन ें जरिए जैविक खाद बनाने और गांव को प्लास्टिक मुक्त करने का अभियान शुरू किया। इसमें भी गांव के लोगों ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। इन तमाम प्रयोगों और उनकी कामयाबी का परिणाम है कि आज बाचा गांव पूरे देष के लिए एक आदर्श बन गया है।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के सहायक प्राध्यापक लोकेन्द्र सिंह के शब्दों में कहें तो बाचा गांव की यात्रा अभी समाप्त नहीं हुई है। परंपरागत ज्ञान और अत्याधुनिक विज्ञान के समावेश से बाचा ने कामयाबी की जो मिसाल कायम की है वह अनूठी और अनुकरणीय है।

‘बाचा: द राइजिंग विलेज’ फिल्म आप यहां देख सकते हैं :https://youtu.be/bpu2WNiyOMM




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