यह मैं नहीं कह रहा बल्कि प्रतिष्ठित समाजवादी चिंतक और मैगसेस पुरस्कार विजेता डाॅ. संदीप पांडेय ने कही है। अलबत्ता मैं इस विचार का पूरा समर्थन करता हूं।
डाॅ. संदीप पांडेय ने यह बात विगत 17 मई को आॅल इंडिया कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के 87वें स्थापना दिवस पर ‘हम समाजवादी लोग’ द्वारा आयोजित आॅन लाइन सम्मेलन में कही। इसी दिन 1934 में जय प्रकाश नारायण की पहल पर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का पहला अधिवेशन हुआ था, जिसमें आचार्य नरेंद्र देव को पार्टी अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे। आॅन लाइन सम्मेलन में समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय 35 समाजवादी विचारकों ने अपने विचार व्यक्त किए और देशभर में 70 हजार से अधिक लोगों ने फेसबुक लाइव के माध्यम से इसमें भाग लिया। सम्मेलन में शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, मजदूरों की स्थिति, देश की अर्थव्यवस्था, सांप्रदायिक सद्भाव, पर्यावरण संरक्षण आदि विषयों सहित मौजूदा कोरोना संकट के कारण वैश्विक स्तर पर आर्थिक, राजनैतिक और कूटनीतिक मामलों में हो रहे बदलावों पर विस्तृत विचार-विमर्श किया गया। इस मौके पर उक्त विषयों को शामिल करते हुए समाजवादी घोषणा पत्र जारी किया गया, जिसमें परीक्षा मुक्त, निशुल्क और राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था लागू किए जाने पर विशेष जोर दिया गया है।
ऐसा भी नहीं है कि देश में परीक्षा मुक्त शिक्षा प्रणाली की बात पहली बार हो रही है। शिक्षा विशेषज्ञों सहित कई राजनेता और सामाजिक चिंतक समय≤ पर यह बात कहते आए हैं। इसी कारण देश में 8वीं तक किसी भी छात्र को अनुत्तीर्ण न करने का नियम बनाया गया। लेकिन इससे परीक्षा मुक्त शिक्षा व्यवस्था के लक्ष्यों को हासिल नहीं किया जा सकता। लिहाजा, कोरोना संकट के चलते इस विषय पर फिर से चर्चा होने लगी है।
ज्ञात हो कि सीबीएसई अधिकतर राज्यों के शिक्षा बोर्डों की 10वीं और 12वीं परीक्षाएं फरवरी दूसरे सप्ताह में आरंभ हो गई थीं। लाॅकडाउन शुरू होने से पहले ही, मार्च दूसरे सप्ताह में स्कूल-काॅलेज बंद कर परीक्षाओं पर रोक लगा दी गई थी। दोनों ही कक्षाओं के छात्रों को 5 या 6 विषयों की परीक्षाएं देनी होती है, जो करीब एक महीने में नहीं हो र्पाइं। कई विषयों की परीक्षाएं अभी होनी हैं। कहा जा रहा है कि बाकी बचे विषयों की परीक्षाएं 1 जुलाई से 15 जुलाई के बीच होंगी। कोरोना संक्रमण के बढ़ते जाने से इस पर फिर से विचार किए जाने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। यानी अभी भी तय नहीं है कि 10वीं और 12वीं की परीक्षाएं कब पूरी होंगी और कब परिणाम आएंगे। इस कारण छात्रों और उनके परिजनों की परेशानी का अनुमान लगया जा सकता है। परीक्षा मुक्त शिक्षा व्यवस्था से इस परेशानी से बचा जा सकता था।
परीक्षा मुक्त शिक्षा व्यवस्था का समर्थन केवल कोरोना संकट के कारण नहीं किया जा सकता। इसके कई मूलभूत कारण हैं। उन कारणों का उल्लेख में मैंने कई बार अपने लेखों में किया भी है। जैसे़;
1) परीक्षा आधारित शिक्षा प्रणाली में छात्र का ध्येय ज्ञानार्जन न होकर परीक्षा में अधिक में अधिक अंक (माक्र्स) हासिल करना होता है। इससे शिक्षा के व्यावसायीकरण को बढ़ावा मिलता है। निजी शिक्षण संस्थानों, ट्यूशन व कांचिंग सेटरों और परीक्षा में अच्छे अंक हासिल कराने के लिए सहायक पाठ्य पुस्तकों - गैस पेपर, माॅडल पेपर आदि के कारोबार में वृद्धि इसके साइड इफैक्ट हैं।
2) परीक्षा आधारित शिक्षा प्रणाली निजी शिक्षण संस्थानों को छात्रों के परिजनों के मानसिक और आर्थिक दोहन का हथियार देती है। वे बोर्ड परीक्षा में अपने संस्थान के छात्रों द्वारा परीक्षा में अधिकतम अंक प्राप्त करने का प्रचार करते हैं। घरेलू परीक्षा में छात्रों को उनकी योग्यता से अधिक अंक प्रदान कर और विभिन्न विभिन्न गैर-शैक्षणिक कार्यक्रमों से छात्रों का बहुमुखी विकास होने के तर्क से अभिभावकों पर दबाव बनाते हैं। इससे छात्रों के परिजन उनकी हर बात - फीस वृद्धि से लेकर एडमिशन के समय डोनेशन या कैपिटेशन फीस और विभिन्न कार्यक्रमों के नाम पर धन उगाही तक, मानने को तैयार हो जाते हैं।
3) सामाजिक असमानता और शिक्षा में असमानता का सबसे बड़ा कारण ही परीक्षा आधारित शिक्षा व्यवस्था है। साधन संपन्न और अमीरों की संतानों को महंगे प्राइवेट सकूलों में अत्याधुनिक शिक्षा हासिल करने का मौका मिलता है तो ओहदेदार लोगों के बच्चों के लिए गुणवत्तापूर्ण स्कूल खुले हैं। आगे चलकर, प्रशासनिक सेवाओं, इंजीनियरिंग, मेडिकल और मैनेजमेंट में उनका विशेषाधिकार हो जाता है। इसके विपरीत गरीब का बच्चा जो सरकारी स्कूलों में ‘मिड डे मील’ या मुफ्त स्कूल ड्रेस व किताबों से शिक्षा प्राप्त कर किसी भी तरह रोजी-रोटी हासिल करने योग्य बन पाता है। इन दोनों के बीच मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के लोगों की शिक्षा से जुड़ी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए दोयम दर्जे के प्राइवेट स्कूलों दुकानदारी चल पड़ती है।
4) शिक्षा व्यवस्था को परीक्षा आधारित बना दिए जाने का परिणाम यह हुआ है कि अत्याधुनिक स्कूलों से शिक्षा प्राप्त युवा अपने समाज और परिवेश से कट गए है। वे चाहे किसी महंगे प्राइवेट स्कूल से पढ़े हों या केंद्र अथवा राज्य सरकारों द्वारा चलाए जाने वाले विशेष सरकारी स्कूलों से। यदि आज भारत के प्रतिभावान डाॅक्टरों, इंजीनियरों, आईटी एक्सपट्र््स और मैनेजमेंट प्रोफेशनल्स आदि का सपना अमेरिका या यूरोपीय देशों में जाकर काम करना है तो इसकी बड़ी वजह यह भी है।
5) सामान्यतः शिक्षा का उद्देश्य आजीविका की योग्यता हासिल करना और नैतिक एवं बौद्धिक दृष्टि से जीवन को श्रेष्ठ बनाना माना जाता है, परीक्षा आधारित शिक्षा प्रणाली से छात्रों का लक्ष्य अधिक से अधिक अंक हासिल करना होता है। इससे वे व्याहारिक ज्ञान और शिक्षा का नैतिक लक्ष्य प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं।
6) परीक्षा प्रणाली को इसलिए भी समाप्त कर दिया जाना चाहिए कि किसी भी व्यक्ति की योग्यता का आकलन परीक्षा में प्राप्त अंकों के आधार पर नहीं किया जा सकता। योग्यता का आकलन उस चयन पक्रिया के से माध्यम से होता है जिसका सामना व्यक्ति को किसी व्यावसायिक पाठ्यक्रम या नौकरी के लिए साक्षात्कार के समय करना पड़ता है।
गांधी जी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘ग्राम स्वराज’ में कहा है, ‘‘शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य आवश्यक भाषा ज्ञान और उन कलाओं और शिल्पों का ज्ञानार्जन होना चाहिए जो जीवन के लिए जरूरी हैं।’’ चीन के प्राथमिक स्कूलों की परीक्षा प्रणाली में किताबी पाठ्यक्रम से जुड़े प्रश्नों के बजाय जीवन की जरूरतों से जुड़े प्रश्न पूछे जाते हैं। जर्मनी, जापान, पोलैंड, नार्वे आदि कई देशों में माध्यमिक स्तर तक शिक्षा को परीक्षा मुक्त और निशुल्क रखा गया है। अमेरिका में विश्वविद्यालय स्तर पर भी कई कोर्सों की परीक्षा नहीं ली जाती।
भारतीय शिक्षा व्यवस्था में यों तो कई खामियां हैं। इसी कारण स्वतंत्रता प्राप्ति से समय से ही शिक्षा व्यवस्था में आमूल परिवर्तन की बात कही जाती रही हैं। पिछले 70-75 सालों में कई बदलाव भी हुए हैं लेकिन हर बदलाव के बाद शिक्षा आम आदमी से दूर होती गई है। यदि ऐसा न होता तो आजादी के करीब 6 दशक बाद देश में ‘शिक्षा का अधिकार’ जैसा कानून नहीं बनाना पड़ता। इस कानून से गरीब के बच्चों को अक्षर ज्ञान और सर्टिफिकेट तो मिल सकते हैं लेकिन उनमें बेहतर जीवन यापन की काबिलियत पैदा होने की गारंटी नहीं की सकती। इसके लिए शिक्षा व्यवस्था में बदलाव के लिए कई और कानून बनाने होंगे। फिलहाल, परीक्षा मुक्त शिक्षा व्यवस्था की व्यावहारिकता पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। बाकी कुछ हो या न हो इससे शिक्षा पर निजी क्षेत्र के वर्चस्व को समाप्त नहीं तो कम जरूर किया जा सकता है। कोरोना संकट के चलते ही सही सरकार को इस विषय पर पहल करनी चाहिए। देश के कई राज्यों ने बोर्ड परीक्षाओ को छोड़कर अन्य कक्षाओं के छात्रों को बिना परीक्षा के उत्तीर्ण करने का निर्णय लिया है। इस समय यदि केंद्र ऐसी पहल करता है तो उसे राज्यों का समर्थन मिलने की भी पूरी संभावना है।
आपके विचारआमंत्रित हैं।


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