एक बार फिर उत्तराखंड के ‘भुतहा गांवों’ (Ghost Villages) की चर्चा चल पड़ी है। राज्य के 25वें स्थापना दिवस 9 नवंबर’ 2024 से ठीक पहले शुरू इस
चर्चा के संदेश स्पष्ट है। इस चर्चा का संबंध केवल उन गांवों से नहीं है जो कि बीते 24 सालों
में निर्जन हुए है या अभी भी निर्जन होने की कगार पर है बल्कि यह उस
कथित विकास की हकीकत है जिसके चले उत्तराखंड के लोग अपना गांव छोड़ने को मजबूर हुए
है।
‘भुतहा गाव’ शब्द पहली बार 2011 की जनगणना के बाद प्रचलन में आया था। जनगणना से यह
तथ्य सामने आया था कि उत्तराखंड राज्य बनने के बाद राज्य के कुल 16792 गांवों में से 1,034 गांव पूरी तरह जनशून्य हो चुके थे। उन गांवों के लोग से पलायन कर गांव छोड़ गए थे। उन्हीं
जनशुन्य गावों को ‘भूतहा गांव’ कहा गया था।
जनगणना से यह भी स्पष्ट
हुआ था कि राज्य बनने के बाद, मूलभूत सुविधाओं - शिक्षा, स्वास्थ्य,यातायात व संचार और रोजगार के अभाव में भारी संख्या में पर्वतीय जिलों गांमीण
अचलों से पलायन कर लोग दिल्ली, मुंबई आदि महानगरों, राज्य के मैदानी जिलों, जिला मुख्यालयों एवं आसपास के छोटे नगरों व कस्बों में
पलयान कर गए थे।
यही कारण है कि वर्ष 2012
के विधानसभा चुनाव में पलायन मुख्य चनावी मद्दा बन गया था। पलायन को
रोकने के लिए राजनैतिक दलों ने स्थानीय विकास और प्रशासनिक इकाईयों के, मुख्यतः जिलों के
पुनर्गठन की बड़े-बड़े दावे किए। कहा गया कि इससे संरचना का विका विकास होगा और रोजगार के
अवसर मिलेंगे। चुनाव में सत्ता परिवर्तन के बाद बनी कांग्रेस सरकार ने इस
दिशा में कछ प्रयास भी किए लेकिन वे पलायन के प्रवाह को रोकने में नाकाफी थे।
पलायन रोकने के लिए बनाया
गया आयोग
वर्ष 2017
के चुनाव में फिर सत्ता परिवर्तन हुआ। भाजपा सरकार बनी। उसने
पलायन को रोकने के लिए ‘ग्राम्य विकास और पलायन आयोग’ का गठन किया। बाद में उसका
नाम बदलकर ‘ग्राम्य विकास और पलायन रोकथाम आयोग’ कर दिया गया। पलायन आयोग ने
बड़ी ही तत्परता के साथ काम करते हुए अपगैल 2018 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। पलायन आयोग की उस पहली रिपोर्ट में 2008 से 2018 तक की वस्तुस्थिति को
उजागर किया गया था।
हैरतअंग्रेज तो यह है कि 2018 में भुतहा गांवों की संख्या बढ़कर 1868 हो गई थी और पलायन भी पहले से अधिक हो गया था। इस तरह दूसरी बार ‘भुतहा गांव’ उत्तराखंड के अआर्थिक-सामाजिक विकास की बहसों
की मुख्य विषय बनकर सामने आए हैं।
और अब, जबकि उत्तराखंड राज्य निर्माण के 24 साल पूरे होने पर राज्य के 25वें स्थापना दिवस की तैयारियां चल रही हैं तो ‘भुतहा गांव’ सत्ताधीशों की खुशियों में खलल डालने को आ धमके हैं। हालांकि चर्चा का आधार पलायन रोकथाम आयोग की दूसरी रिपोर्ट है, जिसमें 2018 से 2022 तक की वस्तुस्थिति का खुलासा किया गया गया है। यह रिपोर्ट पलायन रोकथाम आयोग ने मार्च 2024 में रिलीज की थी। लेकिन बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकत्ताओं ने राज्य के 25वें स्थापना दिवस से ठीक पहले ‘भुतहा गावों’ अर्थात पलायन को सामाजिक-आर्थिक विकास और राजैतिक विमर्श का विषय बना दिया है।
सोशल डेवलपमेंट फॉर कम्युनिटीज (Social
Development for Communities) के संस्थापक सामाजिक कार्यकर्ता अनूप
नौटियाल ने पलायन रोकथाम आयोग की रिपोर्ट के हवाले से कहा है कि उत्तराखंड के पर्वतीय
क्षेत्रों के गांवों से पलायन पहले से अधिक हो गया है, जो आर्थिक विकास कि के मोर्चे पर राज्य सरकार की नाकामियों को उजागर करती है।
उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से ही पलायन को विकास की विसंगतियों की
परिणति के रूप में देखा गया है। इस क्षेत्र
के लोगों ने जहां देश की आजादी के संघर्ष में वहीं स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्र के निर्माण और उसकी सुरक्षा में अभूतपूर्व योगदान दिया बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। लेकिन विकास में उनकी भागीदारी को लगभग नकार दिया गया,
नतीजन, रोजी-रोटी और बेहतर भविष्य की तलाश
में लोगों ने दिल्ली, मुंबई, लखनऊ,
कोलकाता आदि शहरों की ओर रुक्ष किया। 1980 के दशक में जब उत्तराखंड राज्य आंदोलन तेज हुआ तो पलायन इसके केंद्र में था।
विकास के केंद्र में रहे मैदानी क्षेत्र
उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद भी विकास के
केंद्र में मैदानी क्षेत्र और पहाड़ में जिला मख्यालय
ही रहे। इससे दूर-दराज के गांवों के लोग मैदानी क्षेत्र या जिला मख्या के आसपास
बसे लगे। यह पलायन की प्रवृति में
एक बदलाव जरूर था, पहले की तरह लोग राज्य छोड़कर बाहर
नहीं जागए बल्कि राज्य के अंदर ही या अपने ही जिले के में स्थित शहर में जाकर बसे
लगे। ऐसे लोगों में अधिकतर वे
लोग रहे हैं जो सरकारी नौकरियों में हैं और शहरों या तराई में महंगी जमीन खरीद कर
मकान बना सकते हैं।
पलायन रोकथाम आयोग की मानें तो यह अस्थायी पलायन है,
लेकिन इससे ग्रामीण राज्य का नकसान हुआ है। इससे गांव तो वीरान और बंजर हुए
हैं शहरों के आस पास कंक्रीट के जंगल उग आए। अर्थात गांवों के साथ-साथ शहरों के आसपास भी खेती,
बागवानी और पशुपालन चौपट। साथ ही प्राकृति सौंदर्य की मिसाल समझे जाने वाले
पहाड़ी शहरों की सुंदरता समाप्त हुई है और पर्यावरण प्रदूषण बढ़ा है।
रोजाना 230 लोग छोड़ रहे हैं अपना मूल
गांव
श्री अनूप नौटियाल कहते हैं कि सरकार स्थायी पलायन में कमी का दावा करती है, लेकिन भयावह आंकड़े बताते हैं कि 2008 से पलायन में वृद्धि हुई
है। पलायन आयोग की पहली रिपोर्ट के अनुसार 2008-2018 के बीच (दस वर्षों में) 502,717 लोगों ने पलायन
किया तो दूसरी रिपोर्ट के अनुसार 2018 -2022
के बीच (चार वर्षों में ) 335,841 लोग पलायन कर
चुके हैं। यानी सालाना 83,960 लोग पलायन किया हैं। यह तेज
वृद्धि इस बात का स्पष्ट संकेत है कि समस्या नियंत्रण से बाहर हो रही है।
भविष्य के खतरनाक संकट की ओर इशारा करते हुए वह कहते हैं, कि 2018 -2022 के बीच चार वर्षों में पलायन में 67% वार्षिक वृद्धि हुई है। संख्या चौंकाने वाली है।2008-2018 बीच सालाना 50,272 लोगों ने पलायन किया था। अर्थात पहले के 10 में सालों में प्रतिदिन 138 लोग पलायन कर रहे थे तो बाद के बाद के चार सालों में हर दिन 230 लोग लोगों ने अपना मूल गांव छोड़ा है।
पलायन के कारण वीरान उत्तराखंड के गांवों को लेकर उत्तराखंड
के ही नहीं देश के कई हिस्सें के विद्वान भी चिंतित हैं। सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर में समाजशास्त्र विभाग की सहायक
प्रोफेसर डॉ. राजकुमारी अहीर ने जोर देकर कहती हैं कि जब गांव वीरान हो जाते हैं, तो स्थानीय
समुदायों की आजीविका बाधित हो जाती है और परिवारों को अपने पुश्तैनी घरों और
जमीनों को छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ता है। कुछ मामलों में, यह सांस्कृतिक
और पारंपरिक प्रथाओं को खत्म कर देता है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित
होती रही हैं।
सुरक्षा जोखिम भी पैदा करते खाली गांव
डॉ. राजकुमारी कहती
हैं, “खाली गांव सुरक्षा जोखिम भी पैदा करते हैं
क्योंकि अनियंत्रित क्षेत्र आपराधिक गतिविधियों के लिए अधिक प्रवण होते हैं, जिसमें अवैध
कटाई और वन्यजीवों का अवैध शिकार शामिल है। इसके अलावा, छोड़े गए गांव
भूमि हड़पने वालों के अतिक्रमण को आकर्षित करते हैं और पर्यावरण के लिए जोखिम पैदा
करते हैं क्योंकि वे अक्सर अनियंत्रित जंगल की आग के लिए प्रवण होते हैं।
वरिष्ठ
विश्लेषक और इतिहासकार जय सिंह रावत के अनुसार, उत्तराखंड में पलायन के पैटर्न में महत्वपूर्ण
बदलाव से पर्वतीय क्षेत्र के शहरों और कस्बों में उनकी वहन क्षमता से अधिक लोग रह
रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप गंभीर स्थिति पैदा हो गई
है। इसने जनसंख्या वितरण और पर्यावरण असंतुलन जैसे गंभीर मुद्दों को जन्म दिया है।
जोशीमठ को इसका एक प्रमुख उदाहरण है।
उत्तराखंड
सरकार ने पलायन को रोकने भुतहा गांवों के पुनर्वास और पुनरुद्धार के लिए
विभिन्न परियोजनाएं शुरू की हैं। लेकिन उन प्रयासों से न तो पलायन थमता दिख रहा है
और न ही जनता को उन पर विश्वास है। वरिष्ठ पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता राजीव
नयन बहुगुणा (प्रसिद्ध
पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा के बेटे) ने राज्य पलायन आयोग की निंदा करते हुए इसे
"पूरी तरह बकवास" बताया है। श्री बहुगुणा ने कहा, "वे जानते हैं कि वे काम करने का दिखावा कर रहे
हैं, ठीक वैसे ही जैसे एक तांत्रिक जानता है कि वह
खाली मंत्रों का जाप कर रहा है।"
मजबूरी बन चुका है पलायन
यह सच
है कि देश के अन्य क्षेत्रों के समान ही उत्तराखंड से भी पलायन की के मुख्य कारण, मूलभूत सुविधाआं का अभाव और रोजगार के अवसरों
की कमी है। हाल के वर्षों में इनमें प्राकृतिक आपदाओं की चुनौती भी जुड़ गया है। लेेकिन पूर्व में कभी भी यह देश के अकालग्रस्त
या अभावग्रस्त क्षेत्रों की तरह जिंदा रहने के लिए मजबूरी का पलायन नहीं रहा। उत्तराखंड के लोगों ने हमेशा बेहतर षिखा और
बहेतर जीवनयापन की सुविधाओं के लिए देश के महानगरों का रुख किया था। इस कारण इसे विकास के विकल्प के रूप में ही
देखा गया था। लेकिन आज जिस
तरह गांव के गांव
जनशून्य होते जा रहे हैं उससे पलायन अब मजबूरी बन चुका है।
थोपा गया नेतृत्व हल नहीं सकता समस्या
पलायन
की समस्या के समाधान के लिए एक ठोस रणनीति बनाकर
काम करने की आवश्यकता है। स्पष्ट है कि यह कार्य राज्य का राजनैतिक नेतृत्व
ही कर सकता है। दुर्भाग्य यह है कि महान
स्वतंत्रता सेनानी और राष्ट्रीय नेताओं की जन्मस्थली उत्तराखंड आज हैकर
रहा है। 9 नवंबर
2000 को राज्य बनने के साथ ही शुरू हो गया था। बीते 24 सालों
में जिस तरह देश की दोनों राष्ट्रीय पार्टियों - कांग्रेस और भाजपा ने बारी-बारी ऊपर जनता पर
ऊपर से नेतृत्व थोपा है उससे राज्य में स्वाभाविक
नेतृत्व का विकास नहीं हुआ है। उल्टे
आजादी से पहले की औपनिवेशिक विकास नीति को जारी रखते हुए उपलब्ध भौतिक संसाधनों का
दोहन किया।
उत्तराखंड
राज्य आंदोलन की मुख्य मांग सत्ता और पूंजी के विकेंद्रीकरण की थी, ताकि नवगठित राज्य के लोग अपने संसाधनों के
उपयोग के निर्णय स्वयं ले सकें। इसी
उद्देश्य के लिए उत्तराखंड राज्य के लोगों ने करीब 50
सालों
तक जुझारू संघर्ष किया, बलिदान दिए और यहां तक कि मां-बहनों
की अस्मिता भी दांव पर लगी। राज्य
के 25वें स्थापना दिवस पर, पलायन और भुतहा गांवों के बहाने ही सही, उन सभी बातों,
वायदों, संघर्षों और बलिदानों को याद किया जाना चाहिए।
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