नाबार्ड (NABARD) यानी ग्रामीण कृषि और ग्रामीण विकास बैंक का दावा है कि ग्रामीण भारत तेजी से विकास कर रहा है। ग्रामीणों की औसत आय में वृद्धि हुई है और खाने-पीने की वस्तुओं पर होने वाला व्यय कम हुआ है।
नाबार्ड
का यह दावा NABARD All India Rural
Financial Inclusion Survey 2021-22 पर आधारित है। सर्वे के
मुताबिक 2016-17 से 2021-22 के
बीच केवल पांच
वर्षों की अवधि में औसत ग्रामीण आय में 58 फीसदी की उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2016-17 में ग्रामीण क्षेत्रों
में रहने वाले लोगों की औसत आय 8,059 रुपये थी जो 2021-22 में बढ़कर 12,698 रुपये हो गई है।
कहा गया है कि
ग्रामीण भारत की यह आर्थिक तरक्की समावेशी विकास और परिवर्तनकारी संभावनाओं को रेखांकित करती है। औसत आय में
वृद्धि से ग्रामीणों के जीवन स्तर में सुधार हुआ है। अब वह गैर-खाद्य जरूातों - शिक्षाा, स्वास्थ्य, मनोरंजन आदि पर पहले
से अधिक व्यय करने लगी है। साथ ही उनकी वित्तीय साक्षरता में सुधार हुआ है, अर्थात धन के
दपयोग को लेकर वे सचेत हुए हैं। लोगों की बचत में बढ़ोत्तरी हुई है और वे बीमा योजनाओं
में निवेश करने लगे हैं ताकि अपना भविष्य सुरक्षित कर सकें।
गैर-खाद्य व्यय में कमी
नाबार्ड की रिपोर्ट में इस बात को रेखांकित किया गया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में पहली बार गैर
खाद्य व्यय 50 फीसदी से अधिक हो गया है। वर्ष 2016-17 में ग्रामीण आबादी क कुल आय का 53 फीसदी गैर-खाद्य जरूातों
पर व्यय कर रही थी, जिसमें शिक्षा, आवास, स्वास्थ्य जरूरतें, मनोरंजन आदि आते
हैं, 2021-22 में यह व्यय घटकर 47 फीसदी हो गया है। यह अधिक वित्तीय लचीलेपन और जीवनशैली में सुधार को दर्शाता
है।
सालाना बचत में बढ़ोतरी
आय में वृद्धि का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू उनकी बचत में वृद्धि और बीमा योजनाओं
का विस्तार है। सर्वे के आंकड़ों के अनुसार सरकार के ग्रामीण भारत में सालाना बचत
में 45 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गई
है। लेकिप इससे भी महत्वपूर्ण बीमा कवरेज में आश्चर्यजनक वृद्धि है।
2016-17 में 25.50 फीसदी ग्रामीण आबादी बीमा कवरेज
के अंतर्गत थी जो 2921-22 में बढ़कर 80.3 फीसदी हो गया है, जोकि बहुत ही प्रभावशाली है। अधिक ग्रामीण परिवार बेहतर वित्तीय फैसलों के साथ
अपना भविष्य सुरक्षित कर रहे हैं।
वित्तीय साक्षरता बढ़ी
ग्रामीण लोगों पर अक्सर यह आरोप लगता रहा है कि वे अपनी आय का गैर-जरूरी कामों में उपयोग करते हैं लेकिन नाबार्ड की हालिया रिपोर्ट अलग तस्वीर पेश करती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि में शहरों की तरह ही ग्रामीण भारत में भी वित्तीय साक्षरता बढ़ रही है। वित्तीय साक्षरता 2016-17 में 33.9 फीसदी से बढ़कर 2021-22 में 51.3 फीसदी हो गई है। अधिक लोग अब सूचित वित्तीय निर्णय लेने के लिए ज्ञान से लबरेज हैं।
ज्ञात हो कि हाल ही में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने भी शहरों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्र के लागों की क्रय शक्ति
बेहतर होने की बात कही थी। वेतन में कटौती और महंगाई का शहरी आबादी की तुलना में ग्रामीण आबादी पर कम असर
हआ है। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है, यह सोचने की बात
है।
तस्वीर का दूसरा पहलू
ग्रामीण क्षेत्रों में आय के मुख्य स्रोत कृषि व बागवानी, पशुपालन और
हस्तशिल्प हैं। ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं है कि
इधर इन क्षेत्रों में इतनी वुद्धि हुई हो जिससे कि ग्रामीण भारत की आय में वृद्धि
हो सके। रोजगार के अवसरों की बात करें तो सरकारी नौकरियां अव्वल तो हैं ही बहुत कम और इधर बीते 10-12 सालों से जो थीं वह भी कम हई हैं। संगठित एवं असंठित प्राइवेट सेक्टर की नौकरियां भी गांवों में नहीं हैं।
मनरेगा ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा रोजगार का एकमात्र साधन है। उसमें भी लगातार कमी हुई है। यही कारण है कि हर साल बड़ी संख्या में ग्रामीण युवा रोजगार की तलाश में गांवों से शहरों को पलायन कर जाते हैं। फिर भी ये आंकड़े सही हैं तो फिर क्यों सरकार गरीबी रेखा से नीचे के 80 करोड़ लोगों को हर महीने 5 किलो मफ्त अनाज दे रही है और क्यों किसान सम्मान निधि के नाम पर 2 हेक्टेयर से कम जमीन वाले किसानों को सालाना 6000 रुपए दे रही हैं? सच तो यह है कि ग्रामीण आबादी आज पहले की तलना में अधिक मश्किलों का सामना कर रही है। यह जमीनी सच्चाई नाबार्ड के के दावों पर प्रश्नचिन्ह लगाती है।
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