कोविड महामारी के बाद देश की अर्थव्यवस्था में व्सपक बदलाव आए हैं। ये बदलाव शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण
क्षेत्रों में अधिक स्पष्ट दिखाई देते हैं। ग्रामीण भारत में पहले जहां लोग मुख्य रूप से खेती-बागवानी
और पशपालन पर निर्भर थे अब वहां भी छोटे-मोटे व्यापार, नौकरी और मजदूरी पर लोगों की निर्भरता बढ़ी है। इससे लोगों के रहन-सहन में भी बदलाव आया है। इससे कछ लोगों के जीवन स्तर पर सधार जरूर हुआ
है लेकिन उत्पादन में कोई वृद्धि नहीं दिखाई देती।
हाल ही में जारी, ‘नाबार्ड : भारतीय ग्रामीण वित्तीय समावेशन सर्वेक्षण’ (NABARD All
India Rural Financial Inclusion Survey-NAFIS) के अनुसार यह बदलाव ग्रामीण अर्थव्यवस्था में गैर-कृषि रोजगारों से वित्तीय समावेशन और लचीलेपन में वृद्धि का सूचक है। इस रिपोर्ट में बैंक ने
ग्रामीण भारत की औसत आय में 58 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी एवं खाने-पीने पर होने वाले
व्यय में कमी व गैर-खाद्य व्यय में वृद्धि होने की बात कही है। (इस रिपोर्ट के मुख्य बिंदुओं का उल्लेख का
उल्लेख मैंने अपने पिछले लेख में भी किया था।)
मुफ्त राशन की योजना से पैदा हुआ भ्रम
ग्रामीण विकास विभाग में कार्यरत कर्मचारियों और अधिकारियों की मानें तो ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की आमदनी में वृद्धि
महज एक भ्रम है। असल में, कोविड संकट के दोरान शुरू ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण’ अन्न योजना के कारण पैदा
हुआ है। इससे काफी हद तक लोगों की खाद्यान्न जरूरतें पूरी हो जाती हैं और उनके पास
जो नगद धन होता है उसे वे अन्य कामों में व्यय करते हैं। मख्य रूप से जो भूमिहीन हैं यानी जिनकी खेती
नहीं है उन्हें इसका अधिक लाभ हुआ है। पहले वे अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा आटा, चावल पर व्यय करते थे उसे अब वे अन्य जरूरतों पर व्यय करने
लगे हैं। इसी से ग्रामीण क्षेत्रों
में व्यपारिक गतिविधियों में भी वृद्धि दिखती है।
सच कहा जाए तो नाबार्ड ने जिसे ब्रामीण अर्थव्यवस्था में समावेशन कहा है
वास्तव में वह ग्रामीण अर्थव्यवस्था
में जटिलता का सूचक है। इसके दूरगामी परिणाम
ग्रामीणें के लिए ही नहीं पूरे देश के लिए नुकसानदेह हो सकते हैं। इस आशंका की वजह यह है कि इस दौरान ग्रामीण
क्षेत्रों में किसी भी प्रकार के उत्पादन में वृद्धि नहीं हुई है, न कृषि एवं पशुपालन से संबंधित और नहीं ही किसी
हस्तशिल्प या अन्य किसी गैर-कृषि से संबंधित। यहां तक कि छोटी जोत वाले जो किसान
पहले साल मेंपांच-सात महीनों के लिए अनाज पैदा कर लेते थे उनका भी खेती से मोहभंग
हुआ है। इसके अलावा गांव की बाजारों में मिलने वाली बिकने वाली वस्तुएं भी बाहर से
ही आती हैं।
ग्रामीण अर्थ व्यवस्था की इस जटिलता को बढ़ाने में विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं, खासकर प्रधानमंत्री आवास योजना, प्रधान पीएम किसान सम्मन निधि और (एक हद तक) पेंशन स्कीमों की भी भूमिका
रही है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश,
राजस्थान आदि राज्यों में
ग्रामीण मनरेगा में काम नहीं करना चाहते और नहीं एनआरएलएम के तहत को व्यवसाय करना
करना चाहते लेकिन वे पीएमएवाई (PMAY) के तहत मकान या एनएसपी (NSP) के तहत पेंशन पाने के लिए विभागीय कर्मचारियों को रिश्वत देने को
तत्पर रहते हैं।
बचत और ऋण में वृद्धि का विरोधाभास
नाबार्ड की रिपोर्ट में एक दिलचस्प तथ्य बचत करने और ऋण लेने वाले, दोनों तरह के परिवारों की संख्या में वृद्धि का है। रिपोर्ट के अनुसार 2026-17
नियमित बचत करने वाले परिवारों की संख्या 50.6 प्रतिशत थी जो 2021-22 में बढ़कर 65.6 प्रतिशत हो गई, जबकि इसी अवधि में ऋण लेने वाले परिवारों की संख्या भी बढ़ी है। 2016-17 में
कुल 47.4 प्रतिशत ग्रामीण परिवार ले रहे थे वही 2021-22 में लेने वाले परिवारों की
संख्या 52 प्रतिशत हो गई।
दूसरी विरोधाभासी स्थिति यह है कि बचत करने वाले परिवारों की संख्या में
वृद्धि होने के बावजूद बचत वृद्धि दर कम हुई है,
जो कि व्यय की वृद्धि दर कम है। नाबार्ड की रिपोट्र के अनुसार अध्ययन अवधि के दौरा ग्रामीणों में निवेश की
प्रवृत्ति बढ़ी है। यह निवेश भौतिक परिसंपत्तियों, विशेष रूप से कृषि और भूमि में बढ़ा है, जो कि पांच साल पहले की तुलना में 177 प्रतिशत
अधिक है। जमीनी हकीकत यह है कि इसी बीच बड़ी संख्या
में छोटी जोत वाले किसानों ने अपनी जमीन बेची है, जिसे बड़े किसानों या व्यपारियों (बिल्डरों, प्रोपर्टी डीलरों एवं ईंट भट्टा मालिकों) ने खरीदा है।
चिंता का एक और क्षेत्र है फसल बीमा। भारत में ट्ठषि को यों भी कभी अविृष्टि और तो कभी
सूखे का सामना करना पड़ता है। हाल के वर्षों में जलवायु परिवर्तन के कारण खेती का
जोखिम भी बढ़ा है। इसे फसल बीमा से काफी कम किया जा सकता ह। लेकिन इस बीव सरकार
समर्थित बीमा योजनाओं के बावजूद बीमा कवरेज में 10.8 प्रतिशत की कमी आई है। यह प्रवृत्ति कृषि के प्रति ग्रामीaणों की बढ़ती उदासीनता का दर्शाती है। यह उदासीनता तीन कृषि कानूनों के विरुद्ध हुए किसान आंदोलन आंदोलन के
दौरान भी देखी गई थी।
बहेत छोटा है नाबार्ड का सेंपल
यहां पर यह स्पष्ट करना भी जरूरी है कि नाबार्ड के उक्त सर्वेक्षण में देश 700 जिलों के एक लगभग एक लाख परिवारों को कवर किया गया है। 1 अरब 40 करोड़ से अधिक आबादी वाले भारत में किसी भी सर्वमान्य निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए यह बहत छोटा सेंपल है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनसार तब देश में करीब 24.49 करोड़ परिवार थे जिनमें से 17.97 परिवार ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे थे। देश की भौगोलिक और सामाजिक असमानता या विविधता को देखते हए यह और भी सीमित हो जाती है।
भारत ही नहीं दुनिया भर के अर्थशास्त्री इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि भारत
की ग्रामीण अर्थव्यवस्था लंबे समय से देश की आर्थिक प्रगति का एक महत्वपूर्ण चालक
है। इसका सकल घरेलू उत्पाद, रोजगार और मांग में महत्वपूर्ण योगदान है। के कृषि, बागवानी, पशुपालन और कुटीर उषेगों पर आधारित होने के कारण यह यह उत्पादक और उपभोक्ता
आधार दोनों के रूप में कार्य करती है। इस योगदान का अनमान कोविड-संकट के दौरान
उसकीभूमिका जा सकता है, जब शहरों में उद्योग और व्यपार बंद हो जाने के कारण
आर्थिक क्रियाकलाप ठप्प हो गए थे तो गांवों ने ही देश को आर्थिक संकट से बचाया था। इसलिए जब तक ग्रामीण अर्थव्यवस्था के मुख्या आधार- खेती, बगावानी, पशुपालन और हस्तशिल्प व कुटीर उद्योगों पर आधारित उत्पादन में वृद्धि नहीं
होती कोई भी बदलाव देशहित में नहीं हो सकता।
Source: https://www.policycircle.org/policy/how-is-rural-economy-faring-in-india
Source: https://wethepeople.org.in/blog/education-system-in-rural-areas-28
Source: https://www.nabard.org/auth/writereaddata/tender/pub_0910240156351156.pdf
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