कौन हैं ये ज्यां द्रेज?




लाॅकडाउन लागू होने के बाद, खासकर प्रवासी मजदूरों के रोजगार के सवाल पर ज्यां द्रेज का उल्लेख कुछ ज्यादा ही होने लगा है। दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों के अर्थशास्त्री, सामाजिक चिंतक हों या टाटा इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंसेज या अजीम प्रेम जी फाउंडेशन के शोधकर्ता या फिर बिहार-झारखंड के ग्रामीण अंचलों में काम करने वाले पत्रकार सभी किसी न किसी बहाने ज्यां द्रेज का उल्लेख कर रहे हैं। हर कोई कोरोना संकट के दौर में आर्थिक संकट से उबरने में मनरेगा की महत्वपूर्ण भूमिका सिद्ध करने के लिए ज्यां द्रेज के नाम का उल्लेख कर रहा है।
आखिर से ज्यां द्रेज हैं कौन?
संक्षेप में कहें तो ज्यां द्रेज बेल्जियम मूल के भारतीय अर्थशास्त्री हैं। लेकिन जिस जिस व्यक्ति के नाम का उल्लेख बुद्धिजीवी अपनी बात को प्रमाणिकता सि़द्ध करने के लिए कर रहे हों, उसका परिचय इतने कम शब्दों में नहीं दिया जा सकता। नोबल पुरस्कार बिजेता अमत्र्य सेन जिस व्यक्ति के काम और विचारों की प्रशंसा करते हों और जो व्यक्ति झारखंड के आदिवासी बहुल इलाकों में जाकर गरीबों के साथ उठता-बैठता और खाना खाता हो, उसका परिचय इतना छोटा नहीं हो सकता।
ज्यां द्रेज का जन्म 1959 में बेल्जियम के ल्यूबेन शहर में हुआ था। उनके पिता जैक्यूस द्रेज बेल्जियम ल्यूबेन विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और ‘ सेंटर फाॅ र आपरेशनल रिसर्च एंड इकोनोमैट्रिक्स’ के संस्थापक थे। ज्यां द्रेज 1978 में एसेक्स विश्वविद्यालय से मैथमैट्रिकल इकोमिक्स में डिग्री हासिल करने के बाद लंदन चले गए जहां उन्होंने कुछ समय स्कूल आॅफ इकोनोमिक्स में अद्यापन का काम किया। लेकिन 1979 में पीएचडी करने के लिए भारत चले आए और नई दिल्ली स्थित ‘इंडियन स्टैट्रिक्स इंस्टीट्यूट’ में पीएचडी की। उसके बाद वे दिल्ली विश्वविद्यालय के ‘स्कूल आॅफ इकोनोमिक्स’ में प्रोफेसर नियुक्त हो गए। 1993 में ज्यां द्रेज दिल्ली से रांची चले गए और रांची विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में काम करने लगे।
पीएचडी करने के दौरान उन्होंने देश के कई क्षेत्रों की यात्राएं की और ग्रामीण इलाकों में लोगों के बीच रह कर व्यावहारिक अर्थशास्त्र का अध्ययन किया। उसी दौरान उन्होंने सादगीपूर्ण जीवन शैली को अपनाया। ज्यां द्रेज ने 1990-91 के इराक युद्ध के दौरान कुछ समय इराक-कुवैत सीमा पर शांति शिविरों में बिताया। वहां उन्होंने ‘हंगर एंड पाॅबर्टी इन इराक 1991‘ शीर्षक से शोध प्रबंध लिखा, जो कि खाड़ी युद्ध के ईराकी अर्थव्यवस्था में प्रभाव का पहला शोध प्रबंध था।
रांची विश्वविद्यालय में विजिंिटंग प्रोफेसर रहते हुए ज्यां द्रेज ने न केवल झारखंड को करीब से देखा बल्कि ग्रामीणों को अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार और अपने राजनैतिक और नागरिक अधिकारों की प्राप्ति करने के लिए जन जागरण का काम करना शुरू कर दिया था। इससे उनकी छवि एक प्रोफेसर से साथ एक सामाजिक कार्यकर्ता की बन गई। उस दौरान झारखंड में क्षेत्रीय विकास और स्वायत्तता की मांग को लेकर अलग राज्य आंदोलन चल रहा था। ज्यां द्रेज गैर-राजनैतिक आंदोलनों में भागीदारी करने लगे थे। उनका मुख्य मुद्दा सामाजिक न्याय का था। झारखंड में जहां कहीं भी भुखमरी और अकाल की समस्या होती वहां वे पहुंचने लगे थे।
2002 में ज्यां द्रेज रांची से इलाहाबाद चले गए। वहां वे जी.बी. पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट में प्रोफेसर हो गए। उसी वर्ष उन्होंने विधिवत भारतीय नागरिकता भी ले ली। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में योजना आयोग द्वारा स्थापित योजना और विकास संस्थान के मानद प्रोफेसर भी रहे। 2014 तक इलाहाबाद में रहने के बाद ज्यां द्रेज पुनः रांची चले गए और खाद्यान्न सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक विकास, सूचना का अधिकार जैसे सवालों को उठाने लगे। 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून और योजना (नरेगा) के स्वरूप निर्धारण में ज्यां द्रेज की अग्रणी भूमिका थी। इसके अतिरिक्त सूचना के अधिकार कानून और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बनाने में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वे केंद्र सरकार द्वारा गठित नरेगा समिति के सदस्य भी रहे।
बीते 30-35 सालों में ज्यां द्रेज के जमीनी अध्ययन पर आधारित दर्जनों शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं। कई शोध पत्र नोबल पुरस्कार बिजेता अमत्र्य सेन के साथ संयुक्त रूप में भी प्रकाशित हुए है। अमत्र्य सेन इसका संपूर्ण श्रेय ज्यां द्रेज को देते हैं। वे कहते हैं, ‘‘काम वे करते हैं और प्रशंसा मुझे मिलती है। उनका काम और काम करने का तरीका दोनों सराहनीय हैं।’’
जनता के विकास से जुड़े सवालों को सार्वजनिक मंचों से उठाने के कारण अक्सर वे सत्ता प्रतिष्ठानों के लिए परेशानी का कारण भी बनते रहे हैं। ऐसा ही एक प्रकरण बीते मार्च में लोकसभा चुनाव के दौरान चर्चाओं में रहा है, जबकि झारखंड पुलिस ने एक गैर-राजनैतिक सभा का आयोजन करने पर आचार संहिता का उलंघन करने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया था। वह सभा खाद्य सुरक्षा के संबंध में आयोजित की गई थी। पुलिस का आरोप था किउसके लिए उन्होंने शासन से अनुमति नहीं मांगी थी। लेकिन ज्यां द्रेज चुनाव के दौरान उस तरह की गैर-राजनैतिक और शांतिपूर्ण सभा का आवश्यक मान रहे थे। उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के विरोध में इतना ही कहा कि आचार संहिता में ये कहां लिखा गया है कि चुनाव के दौरान नागरिक गैर-राजनैतिक तरीके से शांतिपूर्ण सभा का आयोजन नहीं कर सकते।
बहराहाल, मनरेगा को लेकर ज्यां द्रेज आज भी उतने ही सजग हैं जितने कि 2005-007 के बीच थे। वे मनरेगा से संबंधित प्रत्येक घटना को करीब से देखने और उसका तार्किक विश्लेषण करने से नहीं चूकते। वर्ष 2020-21 के बजट में मनरेगा के लिए मात्र 61 हजार करोड़ रुपए (जो कि पिछले बजट से करीब 10 हजार करोड़ कम था) तय किए जाने पर उन्होंने कहा था कि ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा ही रोजगार का एकमात्र माध्यम है, इसमें सुधार करने की जरूरत है, जिससे उसका विस्तार किया जा सके। ज्यां द्रेज देश के उन अर्थशास्त्रियों में से एक हैं जिन्हें यह आशंका रही है कि वर्तमान सरकार मनरेगा को खत्म कर सकती है। कोरोना संकट के कारण अब ऐसा नहीं लगता। कोरोना संकट के इस दौर में ज्यां द्रेज मनरेगा की नीति निर्माण से लेकर ग्रामीण स्तर तक मनरेगा योजनाओं के कार्यान्वयन तक नजर गढ़ाए हैं। दो दिन पहले 6 जून को उन्होंने स्पष्ट किया है कि केंद्र और राज्य सरकार शहरों से गांव लौट रहे श्रमिकों को मनरेगा के तहत रोजगार देने का दावा कर रही हैं। लेकिन सत्यता यह है कि अभी भी मनरेगा पंजीकृत श्रमिकों में से 38 प्रतिशत लोगों को काम नहीं मिल रहा है। देश में 6 जून 2020 को 6.4 करोड़ पंजीकृत मनरेगा श्रमिक हैं जिनमें से 2.2 करोड़ को काम  नहीं मिल रहा है।
एक प्रखर अर्थशास्त्री और प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता होने के साथ ज्यां द्रेज एक सरल स्वभाव और मिलनसार व्यक्ति है। वे कहीं भी लोगों से ऐसे घुलमिल जाते हैं जैसे उन्हें वर्षों से जानते हों, और लोग भी उनसे अपनी बात, अपनी परेशानी कहने में कोई संकोच नहीं करते। ऐसे अर्थशास्त्री, विचारक और समाजिक कार्यकर्ता देश में हैं  ही कितने!!

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