कारोना संकट के चलते एक ओर जहां पूरा देश पंचायती राज संस्थाओं से उम्मीद लगाए हुए है। कोरोना के विस्तार को रोकने और लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने से लेकर अर्थव्यवस्था पर कोरोना के प्रभावों का सामना करने के लिए पंचायतों की अहम भूमिका देखते हुए उन्हें अधिकतम स्वायत्तता दिए जाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। वहीं दूसरी ओर नौकरषाही को कोरोना संकट के बहाने पंचायतों के कामकाज पर दखल देने का मौका मिल गया है। ऐसी ही एक खबर बिहार से आई है, जहां कि पूर्णिया, बिहार में प्रखंड पंचायत विकास अधिकारी मुखियाओं (प्रधानों/सरपंचों) की बैठक लेकर उन पर दबाव बनाते हुए कोरोना से बचाव की सामग्री - मास्क, साबुन, सेनेटाइलजर आदि, एक ही दुकान से खरीदने को कहा है। इससे पूर्व प्रखंड विकास अधिकारी ने मुखियाओं को ‘जीविका दीदी’ समूह से मास्क लेने अथवा स्वयं कपड़ा लेकर मास्क बनाने के आदेश दिए थे। मुखियाओं ने जब बैठक में यह बात उठाई तो प्रखंड पंचायत विकास अधिकारी ने कहा कि जीविका दीदी के पास मास्क नहीं हैं, जो हैं भी तो उनकी गुणवत्ता सही नहीं है। प्रखंड पंचायत विकास अधिकारी ने कहा कि वे मास्क उन्हीं के निर्देश के अनुसार खरीदें अन्यथा उन पर कानूनी कार्रवाई होगी। प्रखंड अधिकारियों के इस तरह के दबावकारी आदेषों ने आपदा से संबंधित काम से अलग रहने का निर्णय ले लिया। कोरोना से बचाव के काम सरकारी कर्मचारी ही देखें।
मुखिया संघ के प्रखंड अध्यक्ष धीरेंद्र यादव ने यह जानकारी देते हुए कहा कि मुखियाओं को पूर्व में कोरोना से बचाव के कार्यों का भुगतान भी नहीं किया है। उन्होंने कहा कि प्रखंड के मुखियाओं को सरकारी भवनों को सेनेटाइज कराने, गांव में ब्लीचिंग का छिड़काव करने और गांव में सफाई और प्रचार-प्रसार करने के निर्देष दिए थे, उसका भुगतान भी उन्हें नहीं किया गया। जबकि संघ के जिला अध्यक्ष हरिओम षाह ने कहा कि अधिकारी मुखियाओं पर दबाव बनाकर गलत तरीके से कमाई कर रहे हैं। कोरोना के बहाने वे निर्वाचित जन प्रतिनिधियों को कठपुतली की तरह नचा रहे हैं।
इस मामले में जिला पंचायती राज अधिकारी धमेंद्र सहनी ने कहा है कि जिला अधिकारी ने मुखियाओं का जीविका दीदी समूह या खादी ग्राम संस्थान से लेने के आदेष दिए थे, ताकि जिले में रोजगार सृजन हो सके। इस संबंध मं एसआरएलएम के ब्लॉक प्रोजेक्ट मैनेजर को भी मुखियाओं से बात करने को कहा गया था। लेकिन अधिकतर मुखिया उन से मास्क नहीं खरदना चाहते।
ज्ञात हो कि पंचायती राज संस्थाओं में भ्रश्टाचार और पंचायतों के अपराधीकरण बिहार देशभर में बदनाम है। ग्रामीण विकास और पंचायती राज के तहत कराए जाने वाले निर्माण कार्यों की नहीं समाज कल्याण की योजनाओं के लिए निष्चित धनराशि का बड़ा हिस्सा अफसरों और निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच बंट जाता है। लेकिन कोरोना संकट के समय इस तरह की घटनाओं का प्रकाश में आना चिंता की विशय है।
पंचायतों में नौकरषाही के नियंत्रण का मामला इस बीच उत्तराखंड में भी सामने आया है, लेकिन उसका संबंध कोरोना से नहीं है। उत्तराखंड हाईकोर्ट ने 2017 के एक मामले की सुनवाई करते हुए पंचायती राज प्रतिनिधियों पर कार्रवाई करने का अधिकार नौकरषाही और राज्य सरकार को दे दिया है। जून, 2017 में राज्य सरकार ने जिला अधिकारी को ग्राम प्रधानों पर, मंडल आयुक्त को क्षेत्र समिति के अध्यक्ष और राज्य सरकार को जिला पंचायत अध्यक्ष पर कार्रवाई करने का अधिकार होने संबंधी नोटीफिकेशन जारी किया था। इस आदेष के चुनौती देते हुए हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी। कोर्ट ने उत्तराखंड पंचायती राज एक्ट की धारा 138 का उल्लेख करते हुए राज्य सरकार के आदेश को उचित ठहराया है। यानी अब जनता द्वारा चुने जाने वाले प्रतिनिधियों पर कार्रवाई नौकरषाह करेंगे। पंचायती राज संस्थाओं की स्वायत्तता के पक्षधरों ने इस पंचायती राज की मूल धारणा के विरुद्ध बताया है लेकिन इसकी गुंजाईष तो राज्य सरकार के पंचायती राज कानून में ही है जिसमें कि राज्य सरकार को पंचायतों से ऊपर रखा गया है जबकि संविधान के अनुसार दोनों का ठीक उसी तरह स्वतंत्र अस्तित्व है, जैसे केंद्र सरकार और राज्य सरकार का। लेकिन उत्तराखंड सहित देश के कई राज्यों ने अपने पंचायती राज कानून में ऐसा प्रावधान रखा है जिससे पंचायतों पर राज्य सरकार और नौकरषाही का नियंत्रण बना रहे। एम. वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता वाले दूसरे प्रशासन सुधार आयोग ने भी इस पर चिंता जाहिर की है।
चित्र: 1. मुखिया संघ के जिला अध्यक्ष हरिओम षाह और प्रखंड अध्यक्ष धीरेंद्र यादव के साथ प्रखंड के मुखिया।
2. उत्तराखंड हाई कोर्ट, नैनीताल


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