गोर ग्राम पंचायत टीकमगढ़ से लोकपाल सिंह बुंदेला और दिलवार ग्राम पंचायत, नरसिंहपूर से बृजेष नायक ने अपनी पंचायतों में मनरेगा स्कीम के तहत किए जा रहे कार्यों की फोटाग्राफ भेजे हैं और बताया है कि केरोना संकट के चलते षहरों से गांव लौट रहे लोग मनरेगा में खास रुचि ले रहे हें। वे नए जाॅबकार्ड बनवा रहे हैं और जिनके जाॅबकार्ड पहले से बने थे, उन्हें एक्टिव करा रहे हैं। राज्य यानी मध्य प्रदेष के अधिकतर जिलों में इधर 50 प्रतिषत से अधिक जाॅबकार्ड बने हैं। आगे इसमें और भी वृद्धि हो सकती है। पर्वतीय राज्य उत्तराखंड की स्थिति इससे अलग नहीं है। नेपाल और चीन सीमा से लगे पिथौरागढ़ जिले की द्वालीसेरा पंचायत के प्रधान प्रेम राम के अनुसार उनकी पंचायत में अब तक 100 से अधिक लोग वापस लौटे हैं, जिनमें से करीब 40 लोगों ने जाॅबकार्ड बनाने के लिए अप्लाई किया है। करीब 1,500 की आबादी वाले दृ्वालीसेरा गांव में अब तक लगभग 150 जाॅबकार्ड थे। मनरेगा में मजदूरी कम मिलने के कारण अधिकतर लोग काम नहीं करना चाहते थे। लेकिन अब स्थिति बदल गई है। षहरों से गांव लौट रहे लोगों के पास कोई काम ही नहीं है तो वे मनरेगा में काम करने के लिए तैयार हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेष के चित्रकूट जिले की रुक्माखुर्द ग्राम पंचायत में भी षहरों से लौटे करीब 100 लोगों ने जाॅबकार्ड बनाए हैं। ग्राम पंचायत सचिव विपिन कष्यप ने बताया कि जाॅगकार्ड बनवाने वाले अधिकतर लोग षहरों में दिहाड़ी पर काम कर रहे थे। अब वे गांव में रहकर ही आजीविका चलाना चाहते हैं।
वैष्विक महामारी कोरोना यानी कोविड-19 का यह तात्कालिक परिणाम देष के ग्रामीण अंचलों में देखने को मिल रहा है। यह महामारी कब तक चलेगी और कब तक इसका असर रहेगा, कहना मुष्किल है। फिलहाल कोरोना का कहर निरंतर बड़ता जा रहा है। अब तक दुनियाभर में 66 लाख से अधिक लोग इससे संक्रमित हो चुके हैं और 4 लाख लोगों की मृत्यु हो चुकी है। जब तक इसका कोई टीका नहीं बन जाता है इसपर नियंत्राण का कोई प्रामाणिक ईलाज नहीं है। भारत में कोरोना संक्रमण 2 लाख 20 हआंकड़ा पार कर चुका है और 6 हजार लोग इससे मारे जा चुके हैं। कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए लागू लाॅकडाउन के कारण षहरों मंे काम करने वाले प्रवासी मजदूरों को किन मुष्किलों का सामना करना पड़़ा है, षहरों में काम बंद होने और आमदनी खत्म हो जाने के कारण सैकड़ों किलोटर पैदल चलकर या साइकिल अथवा भेड़-बकरियों की तरह ट्रक में लदकर गांव जाते समय उन्हें किन नारकीय स्थितियों का समाना करना पड़ा है, इन बातों को दुहराने का अब कोई मतलब नहीं है। न ही इस पर चर्चा करने का औचित्य रह गया है कि प्रवासी श्रमिकों को उनके गांव वापस चलाने के लिए चलाई गई श्रमिक स्पेषल रेलों की बदइंतजामी और उसके बाद केंद्र और विभिन्न राज्यों की सरकारों ने किस तरह का राजनीतिक खेल खेलना चाहा।
निष्चित ही कोरोना का विस्तार एक दिन रुक ही जाएगा। विषेशज्ञों की मानें तो एक महीना, डेड़ महीना या फिर दो महीना ही रहेगा यह संकट। लेकिन असली चुनौती उसके बाद की स्थितियों का सामना करने की है। खासकर अर्थव्यवस्था पर इसका जो असर पड़ा है उसका सामना करना देष के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। दो महीने से अधिक समय तक जारी लाॅकडाउन के कारण उत्पादन और वितरण की चेन पूरी तरह टूट चुकी है। छोटे और मझोले उद्योग, जिनका सकल घरेलू विकास में सबसे बड़ा हिस्सा है और सबसे अधिक रोजगार प्रदान करते हैं , ध्वस्त हो चुके हैं। जिनके फिर से षुरू होने में काफी समय लगना तय है। मई महीने के तीसरे सप्ताह के अंत तक षहारों में काम करने वाले करीग 12 करोड़ लोग कोरोना महामारी और लाॅकबंदी के कारण बेरोजगार हो चुके थे, जिनमें से अधिकांष लोग दिहाड़ी पर अथवा छोटी कंपनियों में काम करने वाले हैं। कोरोना समाप्त हो जाए तब भी उन्हें आसानी से काम मिलने की उम्मीद नहीं है। इस बात का अहसास हमारी सरकार को भी है। सरकार में बैठे लोग यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि षहरों से गांव लौटने वाले श्रमिकों के पास वहां भी कोई काम नहीं होगा। ऐसी स्थिति में एकमात्र मनरेगा ही उनके रोजगार का जरिया बन सकता है। यही वजह है कि जब सरकार ने पहली बार कोरोना से बचाव के लिए राहत पैकेज की घोशणा की तो उसमें मनरेगा को प्राथमिकता से लिया। सरकार ने कोरोना संकट के चलते अथवा उससे निपटने के लिए मनरेगा योजनाओं के लिए 40 हजार करोड़ रुपए के अतिरिक्त पैकेज की घोशणा कर दी और मजदूरी 182 रुप्ए से बढ़ा कर 202 रोजाना रुपए कर दिया। पंजाब और हरियाणा में पहले से ही यह 24व रुपए के आसपास थी।
बहरहाल, सरकार की इस दरियादिली से क्या वास्तव में षहरों से गांव लौट रहे लोगों और ग्रामीण बेरोजगारों का भला हो सकेगा, यह चर्चा का विशय हो सकता है। ज्ञात हो कि सरकार ने इस वर्श के बजट में मनरेगा के लिए 61 हजार करोड़ रुपए का प्रावधान किया था, जो कि पिछले साल के बजट से लगभग 10 हजार करोड़ रुपए कम है। यह सच है कि देष के बड़े हिस्से के ग्रामीण अंचलों में मनरेगा रोजगार का एकमात्र जरिया है। इस योजना के तहत, किसी भी बेरोजगार व्यक्ति द्वारा रोजगार मांगे जाने पर 100 दिन का रोजगार देने का कानूनी विधान है। लेकिन व्यवहार में ऐसा नहीं होता बल्कि रोजगार अथवा श्रमिक दिवस का आकलन जाॅबकार्ड के आधार पर होता है जो कि व्यक्तिगत न होकर पारिवारिक होता है। यदि किसी परिवार में 4 वयस्क सदस्य काम करने वाले हैं तो चारों को कुल 100 दिन का रोजगार मिलता है। यानी एक को मात्र 25 दिन। दूसरी अहम बात यह है कि मूलतः मांग आधारित इस योजना को सरकार ने इधर लक्ष्य आधारित कर दिया है। काम करने वाले हों या न हों या संख्या में अधिक हों, ग्राम पंचायतों को उनकी आबादी के अनुपात में जाॅबकार्ड बनाने का एक लक्ष्य दे दिया गया है। उसी लक्ष्य के अंतर्गत मनरेगा योजनाओं में काम मिल सकेगा। यही नहीं सामुदायिक निर्माण योजनाओं के अतिरिक्त व्यक्तिगत हितग्राही मूलक योजनाओं को भी उसी लक्ष्य और बजट के अंदर रखा गया है।
दूसरी ओर इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि ग्रामीण विकास और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के जानकारों की नजर में कोरोना संकट और उसके प्रभावों का सामना करने में मनरेगा को सषक्त तात्कालिक विकल्प के रूप में देख रहे हैं। मजदूर षक्ति संगठन से जुड़े प्रतिश्ठित सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे ने कहा है कि कोरोना संकट के कारण पैदा स्थितियों का सामना करने के लिए सरकार को वर्तमान वित्तीय वर्श में मनरेगा के लिए कम से कम 3 लाख करोड़ रुपए जारी करने चाहिए। साथ ही ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं और कृशि आधारित अर्थव्यवस्था पर जोर देना चाहिए। जबकि जन संघर्श वाहिनी के संयोजक और किसान नेता भूपेंद्र सिंह का मानना है कि मनरेगा योजनाओं को नाली, खड़ंजे अथवा पेजल स्कीमों तक सीमित रखने के बजाय आय संवर्धन की योजनाओं पर फोकस करना चाहिए। इसके लिए पंचायतों को यह अधिकार दिया जाना चाहिए कि वे अपनी जरूरतों के आधार पर मनरेगा के लिए तय योजनाओं पर व्यय कर सकें। दूसरी ओर ग्रामीणों का कहना है कि मनरेगा में एक तो मजदूरी बहुत कम है, उसे कम से राज्य में प्राइवेठ सेक्टर में मिल रही न्यूनतम मजदूरी के बराबर तो किया ही जाना चाहिए। जैसे मध्य प्रदेष और उत्तर पद्रेष में भवन निर्माण और खेतों में काम करने वाले लोगों को करीब 300 रुपए और पंजाब हरियाणा में 500 रुपए मिल जाते हैं। मनरेगा की मजदूरी कम से कम इतनी तो होनी ही चाहिए। साथ ही मजदूरी का तय अवधि में न मिलना भी एक बड़ी समस्या है। मनरेगा मजदूरी 15 दिन में दिए जाने की विधान है, लेकिन कई राज्यों में 3-3 महीनों तक मजदूरी नहीं मिल पा रही और मैट्रियल के भुगतान में तो 6 महीने से लेकर एक साल का समय लग जाता है। मजदूरी और मैट्रियल का भुगतान समय पर न मिलने से कामों की गुणवत्ता पर भी प्रभाव पड़ता है। लिहाजा देष की उम्मीदों के अनुसार मनरेगा में नीतिगत और व्यावहारिक दोनों तरह के बदलाव किए जाने की जरूरत है।


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