फिर होगा सरकारी कंपनियों का निजीकरण

आर्थिक उदारीकरण से साथ शुरू देश के सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को निजी हाथों में सौंपने का सिलसिला एक बार फिर तेज होने की आशंका ब़ गई है। कांगरेसनीत संप्रग सरकार के पहले पांच वर्षात्रें के शासनकाल में सरकार का समर्थन कर रही कम्युनिस्ट पार्टियों के दबाव के कारण इसमें काफी कमी आ गई थी। लेकिन इस बार न तो सरकार पर कम्युनिश्टों का दबाव है और न ही वे विपक्ष में रहते हुए सरकार की नीतियों का प्रतिरोध करने की स्थिति में हैं। लिहाजा सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्रों की कंपनियों की हिस्सेदारी को बेचने के मकसद से फिर से विनिवेश मंत्रालय बनाने की कवायद तेज कर दी है। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में विनिवेश के नाम पर उन्हें देशीविदेशी निजी कंपनियों के हवाले करने करने का सिलसिला यों तो 1991 में पी़वी़ नरसिंहाराव के शासनकाल में आर्थिक उदारीकरण की नीति लागू करने के साथ्ज्ञ ही शुरू हो गया था। वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ़ मनमोहन सिंह ने तब वित्त मंत्री की हैसियत से उसमें निर्णायक भूमिका का निवार्ह किया था। लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को निजी हाथों में सौंपने की सुनियोजित प्रक्रिया 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में हुई, जबकि सरकार ने विनिवेश मंत्रालय बनाकर नौकरशाहों की एक पूरी जमात इस काम में लगा दी थी। 2004 में जब कम्युनिश्टों के समर्थन से डॉ़ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संप्रग सरकार बनी तो कम्युनिश्टों ने सरकार पर दबाव बनाकर विनिवेश मंत्रालय खत्म करवाया और विनिवेश की जिम्मेदारी वित्त मंत्रालय के एक अधिकारी को सौंप दी गई। सरकार उपरी तौर यह दावा जरूर कर रही है कि रणनीतिक तौर पर सार्वजनिक कंपनियों की हिस्सेदारी नहीं बेची जाएगी। लेकिन असलियत यह है कि सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की 40 ऐसी कंपनियों की पहचान कर ली है जिनकी हिस्सेदारी को बेचा जाना है। कहा जा रहा है कि इन कंपनियों की हिस्सेदारी को बेचकर सरकार बजट घाटे के पूर्ति के लिए 50,000 करोड़ रुपए जुटाना चाहती है। इनमें से 15 को तो सूचीबद्ध भी कर लिया गया है सरकार की 90 प्रतिशत हिस्सेदारी वाली इन 15 कंपनियों में से 10 मुनाफे में और 5 घाटे में चल रही हैं। इन कंपनियों में बीएसएनएल, नेशनल स्टील कॉर्पोरेशन, कोल इंडिया, हुडको, ईसीईजी, इंडियन रेल फाइनेंस कॉर्पोरेशन, नॉर्थईस्ट पावर कॉर्पोरेशन प्रमुख हैं। जाहिर है विनिवेश की इस प्रक्रिया से जिन 40 कंपनियों का प्रबंधन अब तक सरकार के हाथों में है उस पर निजी क्षेत्र का कब्जा हो जाएगा, श्रमिकों की छटनी से हजारों लोग बेरोजगार हो जाएंगे, जैसा कि अब तक हुआ है। इसके साथ ही इन कंपनियों की हिस्सेदारी को बेचने के लिए निजी क्षेत्र के व्यापारियों को आकर्षित करने और उनकी मांगों को पूरा करने में जो उपर का लेनदेन होगा उससे भले ही कुछ नेताओं और नौकरशाहों की संपत्ति में वृद्धि हो जाए लेकिन इससे भरष्टाचार का जो विस्तार होगा उससे देश की अर्थ व्यवस्था पर भी नकारात्मक असर पड़ेगा।

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