Cast Sensuous : जाति जनगणना से बदल सकते है हिमाचल के आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक समीकरण


बिहार की उठी जाति जनगणना की गर्म हवा पर्वतीय राज्य हिमाचल प्रदेश पहुंच चुकी है। राज्य की बहुसंख्य आबादी जाति जनगणना के पक्ष में है, जबकि राज्य में सवर्ण आबादी देश के किसी भी अन्य राज्य से अधिक है और सत्ता व संसाधनों पर नियंत्रण भी उसी का है।

राज्य के प्रमुख मीडिया हाउस दिव्य हिमाचल द्वारा किए गए सर्वे रिपोर्ट के अनुसार 55 प्रतिशत लोग जाति जनगणना कराए जाने के पक्ष में हैं और 41 प्रतिशत इसके विरोध में, जबकि 4 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो न जाति जनगणना का न समर्थन करते हैं न विरोध। समझा जाता है कि जाति जनगणना को लेकर यह सर्वे कांग्रेस पार्टी, खासकर पार्टी के प्रमुख नेता राहुल गांधी के आग्रह को ध्यान में रखते हुए किया गया है। संसद के विशेष सत्र के बाद राहुल गांधी जिस तरह जाति जनगणना की मांग उठाते रहे हैं और पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों चुनावों में कांग्रेस ने इसे मुद्दा बनाया है उसे देखते हुए हिमाचल प्रदेश में जाति जनगणना की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।

आइए जानते हैं कैसी है हिमाचल की जातीय संरचना

हिमाचल प्रदेश देश का सबसे बड़ा हिंदू आबादी वाला राज्य है। 2011 की जनगणना के समय राज्य की आबादी 68.65 लाख थी। वर्तमान समय में जो अनुमानित 77 लाख हो सकती है। राज्य में हिंदू 95.17 प्रतिशत, मुसलमान 2.18 प्रतिशत, सिख 1.16 प्रतिशत और बौद्ध 1.15 प्रतिशत हैं। हिंदुओ मैं भी सर्वाधिक सवर्ण है, कुल आबादी का लगभग 50 प्रतिशत से भी ज्यादा।

गैर-सवर्णो सबसे बड़ी आबादी 25.19 प्रतिशत अनुसूचित जातियों यानी दलितों की है, जो 56 जातियों में विभाजित हैं। अनुसूचित जनजाति के संख्या में कम हैं और उनमें श्रेणियां भी दलितों से कम हैं। राज्य में 6 श्रेणियों में वर्गीकृत अनुसूचित जातियों की आबादी 5.7 प्रतिशत है। लेकिन उनकी स्थिति देश के अन्य राज्यों के अनुसूचित जनजाति के लोगों से अलग है।  यहां अनूसूचित जनजाति के लोग अन्य राज्यों की तरह अनुसूचित जनजातियों की तरह स्वयं को आदिवासी नहीं मानते। कला-संस्कृति, भाषा, रहन-सहन आचार-विचार आदि के लिहाज से वे काफी विकसित हैं साथ ही उनमें भी सामान्य हिंदुओ की तरह ही आंतरिक जातीय संरचना है, अनुसूचित जनजातीय दलित अथवा बौद्ध अनुसूचित जनजाति जैसे वर्गीकरण से इसे समझा जा सकता है।

सवर्ण जातियों में राजपूत सबसे ज्यादा है, जो कुल आबादी का लगभग 37 प्रतिशत हैं। ब्राह्मण लगभग 18 प्रतिशत हैं उनमें से भी अधिकतर हाल के सौ-डेड सौ साल में कश्मीर, पंजाब या अन्य मैदानी क्षेत्रों से आकर बसे  बताए जाते हैं, जबकि राजपूत अपना संबंध किसी न किसी पूर्ववर्ती रियासत से बताते हैं। राज्य में वैश्य नहीं के बराबर है।


जहां तक पिछड़ी जातियों की बात है, हिमाचल में अन्य पिछड़ी जाति या अति पिछड़ी जाति का वर्गीकरण नहीं रहा है। हालांकि सरकारी तौर पर करीब 13 प्रतिशत आबादी ओबीसी है। हालांकि उनके प्रति कोई सामाजिक विभेद नहीं दिखाई देता। लेकिन सत्ता में भागीदारी और पहुंच के मामले में उनकी स्थिति अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों से अलग नहीं है।

सत्ता समीकरण और संसाधनों पर नियंत्रण

राज्य की इस जातीय संरचना के कारण शुरू से सत्ता पर राजपूतों का दबदबा रहा है। राज्य के पहले मुख्यमंत्रीयशवंत सिंह परमार से लेकर आज तक राज्य के मुख्यमंत्री लगभग राजपूत ही रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री शांताकुमार एक ब्राह्मण के तौर पर अपवाद हैं जो 1977 और 1990 में राज्य मुख्यमंत्री बने लेकिन दोनों बार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए। राष्ट्रीय स्तर पर आनंद शर्मा, सुखराम और अब जेपी नड्डा आदि ब्राह्मण नेता तो उभरे लेकिन राज्य की सत्ता की कमान राजपूत नेताओं के हाथ में ही रही है।

राज्य की कुल 68 विधानसभा सीटों में से 15 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए और 3 अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं, बाकी 50 सामान्य सीटों में 10 से 15 सीटें ब्राह्मण और मुश्किल से 4-5 सीटें ओबीसी को मिल जाती हैं। सत्ता पर राजपूतों की पकड़ का यह प्रभाव राज्य की नौकरशाही पर भी झलकता है। 

कुछ समय पहले के आंकड़ों के अनुसार राज्य में सरकारी नौकरियों में 37 प्रतिशत राजपूत, 26 प्रतिशत अनुसूचित जाति के लोग, 18 प्रतिशत ब्राह्मण, 1.5 प्रतिशत गद्दी (सबसे प्रभावी अनुसूचित जनजाति) और बाकी पर अन्य लोग थे। 

अपने अधिकारो की बहाली चाहते हैं लोग

हिमाचल प्रदेश का आर्थिक-सामाजिक शुरू से ही देश के अन्य हिमालयी राज्यों के लिए आदर्श और अनुकरणीय समझा जाता रहा है। भूमि सुधार और बंजर भूमि के विकास से फल उत्पादन सहित पशुपालन और स्थानीय हस्तशिल्प का विकास हुआ। लेकिन बीते तीन दशकों के दौरान जिस तरह अर्थव्यवस्था में बाजार की दबदबा बड़ा और भौतिक संसाधनों के दोहन के लिए भारी-भरकम जल विद्युत परियोजनाओं को बढ़वा दिया गया और हाल के वर्षों में कृषि और बागवानी में बड़े पूंजीपतियों की दखल बड़ी है, उससे जहां राज्य में साधनहीन गरीबों के समक्ष रोजी-रोटी के चुनौती पैदा हुई है वहीं भौतिक आपदाओं के कारण असुरक्षा की भावना बढ़ी है। यही नहीं, वनाधिकार कानून में किए गए बदलाव से भी मुख्यतः स्थानीय भौतिक संसाधनों पर निर्भर अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़ों के समक्ष अस्तित्व संकट पैदा हुआ है, जिसकी अभिव्यक्ति समय-समय पर विभिन्न सामाजिक आंदोलनों के होती रही है।  स्वाभाविक तौर पर वे जाति जनगणना के जरिए अपने अधिकारो की बहाली चाहते हैं।

समाज के कमजोर वर्गों को उनके अधिकार कब मिलेंगे अथवा हिमाचल में जाति जनगणना होगी या नहीं, यह कहना तो मुश्किल है लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि हिमाचल में बह रही जाति जनगणना की बयार का प्रभाव पड़ोसी राज्य उत्तराखंड पर पड़ना तय माना जा रहा है। 

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