क्या हम भयावह सोसाइडल युग में प्रवेश कर चुके हैं?

घोर तिमिर घन निबिड़ निशीथे
पी़ड़त-मूर्च्छित देशे
दुस्वप्ने आतंके
रक्षा करीजे अंके
स्नेहमयी तुमि माता।

आज  से करीब 100 साल पहले लिखी गईं गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर की ये पक्तियां, जो कि हमारे राष्ट्रगीत ‘जन गण मन’ का  हिस्सा हैं, स्वतंत्रता प्राप्ति के 72 साल बाद फिर से प्रासंगिक होती नजर आ रही हैं। लोकसभा के 17वें आम चुनावों के चलते देश में जिस तरह का माहौल बना हुआ है उसमें एक ऐसे भयावह दौर की आहट सुनाई दे रही है जिसे हम ‘सोसाइडल एज’ यानी ‘आत्महत्याओं का युग’ कहें तो अन्योक्ति नहीं होगी।
 
किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं पिछले 20 सालों से हमारे देश की राष्ट्रीय चिंता का विषय बनी हुई हैं। आंकड़ों के मुताबिक इस बीच साढ़े तीन लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है। सही-सही आंकड़े दे पाना मुश्किल है क्योंकि वर्तमान मोदी सरकार ने 2016 के बाद किसानों द्वारा अत्महत्या के आंकड़े देना बंद कर दिया है। उससे पहले 2013 में 11,772 किसानों ने, 2014 में 12,360 किसानों ने और 2015 में 12,602 किसानों ने आत्महत्या की थीं। टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार 2015 के बाद प्रतिवर्ष और 12,000 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है। वर्तमान सरकार ने जहां पहले इन आत्महत्याओं को किसानों और कृषि मजदूरों की आत्महत्या के रूप में विभाजित कर उन्हें कम आंकने की कोशिश की, बाद में उन्हें उजागर करना ही बंद कर दिया। यह सरकार की देश की जनता से पर्दादारी ही नहीं धोखबाजी भी है।

एक कृषि प्रधान देश में किसानों की आत्महत्या से अधिक दुखद क्या हो सकता है! कृषि और किसानों में ही इस देश की आत्मा वास करती है। यदि देश का किसान केवल अपने लिए अन्न पैदा करने लगे तो 30-32 प्रतिशत शहरी आबादी, मात्र एक साल में ही भूखे मरने लगेगी। साथ ही कृषि और उससे संबंधित उत्पादों पर आधारित सभी छोटे-बड़े उद्योग खप्प हो जाएंगे। ऊर्जा, पेट्रोलियम और स्टील आधारित उद्योगों को छोड़ कर बाकी सभी उद्योग कृषि और वन उपजों पर आधारित हैं, जिसका देश के उद्योगों 60 प्रतिशत से अधिक अंशदान है। क्या हमारे देश का नेतृत्व इस सत्यता से अनभिज्ञ है? फिर क्यों सरकार कृषि क्षेत्र की समस्याआों को प्रथमिकता के साथ हल करती? क्यों देश का अन्नदाता आत्महत्या के मजबूर है?

लेकिन इससे बड़ी चिंता का विषय यह है कि किसानों की आत्महत्याएं देश में विभिन्न कारणों से होने वाली आत्महत्या का छोटा सा हस्सिा है। नेशनल ब्यूरो ऑफ क्राइम रिकॉर्ड के अनुसार वर्ष 2015 में कुल 1,33,6233 लोगों ने आत्म हत्या की थी, जिसमें किसानों की संख्या 9.43 प्रतिशत यानी 10 प्रतिशत से भी कम थी। सबसे अधिक 32 प्रतिशत आत्मीत्याएं 18 से 32 वर्ष के लोगों ने की थी, जिनमें मुख्यतः छात्र और बेरोजगार युवक थे। पिछले पांच सालों में जिस तेजी से शिक्षा और स्वाथ्य सहित सभी क्षेत्रों में निजीकरण को बढ़ावा दिया गया है और रोजगार के अवसरों में गिरावट आई है, उसके चलते आने वाले समय में छात्र-युवाओं द्वारा आत्महत्या की घटनाओं में वृद्धि की आशंका बढ़ जाती है। 

हमारा यह दुर्भाग्य अथवा शासन की अदूरदृष्टि रही है कि हमने शिक्षा को आजीविका से तो जोड़ा और देश की जीडीपी में बड़़ा योगदान देने वाली 70 प्रतिशत आबादी की आजीविका को उससे दूर रखा। हर शिक्षित व्यक्ति की चाहत होती है कि वह शिक्षा प्राप्त कर बेहतर आजीविका अर्जित करेगा। लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो आज कोई भी शिक्षित व्यक्ति कृषि, पशुपालन, बागवानी आदि नहीं करना चाहता। आज, देश का कोई भी किसान नहीं चाहता है कि उसकी संतान कृषि या पशुपालन के जरिए अपनी आजीविका चलाए।

इसके लिए शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव किए जाने की जरूरत थी, आजादी मिलने के कुछ ही समय बाद यह महसूस भी की जाने लगी थी। लेकिन आधुनिकीकरण के नाम पर निजीकरण और अंग्रेजीकरण को बढ़ावा देककर शिक्षा को आम आदमी की पहुंच से दूर कर दिया गया। नतीजतन, गरीब किसान, मजदूर के बेटे के लिए अच्छी शिक्षा महज सपना बनकर रह गई है। पिछले पांच सालों में इसका चिंताजनक गति से विस्तार हुआ है।

शिक्षा के प्रति सरकार के उपेक्षापूर्ण रवैए के कारण ही सार्वजनिक शिक्षण स्थानों की गुणवत्ता बुरी तरह गिरी है और भारी संख्या में सरकार स्कूल, कॉलेज और व्यावसायिक शिक्षण बंद हुए हैं और उसके स्थान पर प्राइवेट स्कूल, कॉलेजों की वृद्धि हुई है। जिस देश में बड़ी संख्या में लोग अपने बच्चों को ‘मध्यान्ह भोजन, निशुल्क किताबों और ड्रेस’ की सुविधाओं के कारण स्कूल भेजते हों, उस देश में शिक्षा की निजीकरण कितना घातक हो सकता है, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है।

जरा सोचिए, तब क्या होगा जब एक गरीब-होनहार युवक 12वीं से आगे की पढ़ाई में असमर्थ हो जाएगा। उस जोशीले और  भविष्य के प्रति आशावान छात्र के दिल का क्या हाल होगा? अभी भी कई छात्र इसलिए आत्महत्या कर लेते हैं कि कम मार्क्स आने के कारण उन्हें अच्छे कॉलेज में एडमिशन नहीं मिल सकता और प्राइवेट कॉलेज जहां मार्क्स नहीं डोनेशन व फीस निर्णायक होती हैं, वहां वे पढ़ नहीं सकते।

उस नवयुवक का क्या हाल होगा जिसके मां-बाप ने गहने-जमीन बेचकर या मकान गिरवी रखकर उसे बीटेक, एमबीए या इस तरह की कोई भी डिग्री हासिल की और 10-12 हजार की नौकरी मिलना भी मुश्किल हो जाएगा। अभी कम से कम यह मिल तो रही है। क्या होगा उस युवक और उसके मां-बाप के सपनों का? मध्यम स्तर के व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की स्थिति और भी दयनीय है, देश के कोने में फैले ये शिक्षण संस्थान छात्रों और उनके परिजनों को सुनहरे भविष्य के सपने दिखाकर किस तरह मोटी रकम वसूलते हैं यह किसी से छिपा नहीं है। प्रधानमंत्राी नरेन्द्र मोदी ने सत्ता में आते ही स्किल इंडिया के नाम पर जो सब्जबाग दिखाए थे उसकी असलियत का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वह नवयुवकों से शिक्षा और रोजगार के नाम पर नहीं बल्कि पुलवामा और बालाकोट के नाम पर वोट मांग रहे हैं।

मैं, प्रधानमंत्री की शिक्षा पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता। पर इतना जरूर कहूंगा कि उन्होंने अपने एक गरीब परिवार से अथवा टूटे घर से होने की बात का जमकर प्रचार किया है। बात-बात पर कई बार कहा है कि उनकी माता जी ने किस तरह उनका भरण-पोषण किया था। लेकिन उन्हें यह भी नहीं मालूम कि एक गरीब आदमी को अपनी संतान को पढ़ाने में कितना त्याग करना पड़ता है। उन्होंने जब बचपन में ही चाय बेचने लगे थे (जैसा कि प्रचार किया गया था) तो वे सरकारी स्कूल में ही पढ़े होंगे फिर उन्होंने सरकारी स्कूल व कॉलेजों के उद्धार के लिए कोई कदम क्यों नहीं उठाए? 

शिक्षा और रोजगार से वचित ऐसे छात्र-युवाओं के पास आखिर हताशा, निराशा की स्थिति में क्या रह जाएगा? किसान जैसा धैर्यवान और सहनशील व्यक्ति आत्महत्या करने को मजबूर हो सकता है तो दुनियादारी की वास्तविकताओं से अंजान उत्साही युवा क्या करेंगे? इस तरह की आत्महत्याओं को भले ही भिन्न-भिन्न कारणों से जोड़ दिया जाएगा लेकिन किसानों की आत्महत्याओं की तरह उन्हें दबाने संभव नहीं होगा।

इसी तरह, कुछ आत्महत्याएं उन लोगों की होंगी जो अपनी गरीबी के कारण प्राइवेट अस्पतालों में अपना या अपने बीमार परिजन को इलाज न करा पाने के कारण होंगी, जिन्हें आसानी से सद्मा बर्दास्त न कर पाने की घटना करार दिया जाएगा। बहुप्रचारित आयुष्मान भारत और अन्य स्वास्थ्य बीमा योजनाएं भी उन्हें नहीं रोक पाएंगी।

ये तीनों ही समस्याएं गरीबी से जुड़ी हैं। कृषि, व्यापार, उद्योग और सरकारी-गैर सरकारी नौकरी ही गरीबी निवारण के आधार हो सकते हैं। पिछले चुनावों में नरेन्द्र मोदी जी ने हर साल 2 करोड़ नए रोजगार पैदा करने की बात कही थी लेकिन नए रोजगार पैदा करना तो दूर रहा सरकारी विभागों में रिक्त 24 लाख पदों में नियुक्तियां भी नहीं हो पाई, उल्टा नोटबंदी के जरिए करोड़ों लोगों की आजीविका का सहारा छीन लिया। कहा जा रहा है कि मोदी शासन में देश में बेरोजगारी का औसत पिछले 45 सालों में सबसे अधिक रहा है।

पिछले चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने ‘अच्छे दिन आएंगे’ और ‘सबका साथ सबका विकास’ जैसी कर्णप्रिय बातें कही थीं। लेकिन इस बार तो वे ये बातें भी नहीं कह रहे हैं। उन विकास योजनाओं का नाम भी नहीं वे ले रहे जिनके प्रचार में करोड़ों रुपए बहाए हैं। ऐसी स्थिति में कोई भी उनकी नई सरकार से विकास और खुशहाली की योजनाओं के बारे में नहीं पूछ सकेगा।

लोकसभा चुनाव के पांच चरणों के मतदान के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 1991 में दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के प्रति जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया है और जिस धूर्तता के साथ कांग्रेस को बाकी के दो चरणों के चुनाव स्व. राजीव गांधी के मान-सम्मान पर लड़ने के लिए ललकारा है उससे साफ है कि वे येनकेन प्रकारेण सत्ता हासिल करना चाहते हैं। देश की अर्थ व्यवस्था खतरनाक मंदी के मुहाने पर खड़ी है। प्रबुद्ध अर्थशास्त्री लंबे समय से सरकार को यह चेतावनी दे रहे हैं, अब तो वित्त मंत्रालय की रिपोर्ट और प्रधानमंत्री के ही ‘आर्थिक सलाहकार परिषद’ के एक सदस्य ने भी इसका खुलासा कर दिया है। इसके बावजूद यदि देश की जनता नरेन्द्र मोदी सरकार की वापसी चाहती है तो साफ है कि इस देश भयावह ‘आत्महत्याओं के युग’ में प्रवेश करने से नहीं रोका जा सकता है। तब हमारे पास ‘जन मन गण’ गीत की उपरोक्त पंक्तियां दोहराने के सिवाय क्या रास्ता रह जाएगा?
 
इन्द्र चन्द रजवार
दिल्ली, 10 मई, 2019

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