हिन्दी नहीं अंग्रेजी है क्षेत्राीय भाषाओं की दुश्मन

राजभाषा हिन्दी को लेकर अनावश्यक विवाद पैदा हो गया है। केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अध्ीनस्थ राजभाषा विभाग द्वारा सोशल मीडिया में हिन्दी का इस्तेमाल करने संबंध्ी निर्देश के बाद जिस तरह की प्रतिक्रिया राजनैतिक हलकों में देखने को मिली है, उससे लगता है कि यह विवाद महज राजनैतिक है। यही आदेश राजभाषा विभाग ने मार्च 2014 में यूपीए के शासनकाल में भी जारी किया था। लेकिन तब न तो तमिलनाडु की मुख्यमंत्राी जयललिता और डीएमके नेता एम. करुणानिध् िने प्रधनमंत्राी या केन्द्र सरकार को चिट्ठी लिखी और न ही अखिलेश यादव, उमर अब्दुल्ला, वृंदा करात आदि ने हिन्दी के साथ-साथ अन्य भाषाओं को भी महत्व दिए जाने की बात कही थी।
राजभाषा विभाग की गलती यह है कि उसने दूसरी बार यह निर्देश केन्द्र में भाजपानीत एनडीए सरकार बनने के तुरंत बाद जारी किया। यह भी नहीं कहा जा सकता है कि इसके पीछे प्रधनमंत्राी नरेन्द्र मोदी या गृहमंत्राी राजनाथ की प्रेरणा थी यानी मोदी सरकार जनसंघ के ‘हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान’ एजेंडे को लागू करवाना चाहती है। भाजपा ही क्यों, देश की बहुसंख्य जनता जिसमें शीर्ष राजनेता, प्रशासनिक अध्किारी, योजनाकार और नीति निर्माता भी शामिल हैं, सभी चाहते हैं कि राजभाषा हिन्दी का उत्थान हो और उसे राष्ट्रभाषा का दर्जा मिले। अन्यथा बैंको सहित सभी सरकारी दफ्रतरों में ‘कृपया हिन्दी को व्यवहार में लाएं’ क्यों लिखा होता। यही नहीं प्रति वर्ष सितंबर महीने में ‘हिन्दी पखवाड़ा’ मनाया जाता है, जिसका उद्देश्य ही हिन्दी का प्रचार-प्रसार है। इन बातों का तो कभी किसी नेता, साहित्यकार या अधिकारी ने विरोध् नहीं किया। आखिर इस बार ऐसा क्या हो गया कि जिससे राजनेताओं और वृ(िजीवियों को हिन्दीतर क्षेत्रों में हिन्दी थोपे जाने का अंदेशा हो गया और राजभाषा विभाग को सपफाई देनी पड़ी कि यह निर्देश केवल केन्द्र सरकार के विभागों और हिन्दी भाषी राज्यों के लिए था?
गहराई से देखा जाए तो विवाद हिन्दी और तमिल, उर्दू या अन्य भारतीय भाषाओं के बीच का नहीं बल्कि अंग्रेजी के वर्चस्व का है। इस बार का विवाद तो पूरी तरह अंग्रेजी द्वारा खड़ किया गया है। राजभाषा विभाग के जिस निर्देश को हिन्दी अखबारों और चैनलों ने विशेष महत्व नहीं दिया गया उसे अंग्रेजी अखबारों और चैनलों ने जरूरत से ज्यादा स्थान दिया। 27 मई को राजभाषा विभाग ने सर्कुलर जारी कर दिया गया लेकिन नेताओं की संज्ञान में यह बात 15 जून के बाद आई, जबकि प्रधनमंत्राी द्वारा भूटान की संसद को हिन्दी में संबोध्ति करने पर कई अंग्रेजी अखबारों ने ‘हिन्दी डिप्लोमैसी’ जैसे शीर्षक के साथ समाचार और विश्लेषण प्रकाशित किए। इसके बाद ही जयललिता, एम. करुणानिधि, एस. रामदास, वायको सहित तमिल साहित्यकारों और वु(िजीवियों ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की।
हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच इस तरह के विवाद उस वर्ग द्वारा पैदा किए जाते रहे हैं, जो स्वतंत्राता प्राप्ति के समय से ही अंग्रेजी को बनाए रखने और उसे पफलने-पफूलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। स्वतंत्राता आन्दोलन के दौरान गांध्ी जी ने सापफ कर दिया था कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाएगा। अरविंद घोष, जिनकी मातृभाषा बांगला थी, कर्मभूमि तमिल भाषी पुडुचेरी थी और जो अंग्रेजी के विद्वान थे, ने भी देश की एकता और अखंडता के लिए सभी भारतीय भाषाओं का उत्थान करने और हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की सलाह दी थी। चूंकि उस समय अंग्रेजी ही राजकाज की भाषा थी इसलिए स्वतंत्राता प्राप्ति के बाद 1949 में सरकार ने ‘त्रिभाषा सूत्रा’ का प्रतिवेदन पारित किया जिसे 1950 में भारत का संविधन लागू होने पर संविधन में शामिल किया गया।
त्रिभाषा सूत्रा में हिन्दी व एक क्षेत्राीय भाषा को प्रमुखता दी गई थी और अंग्रेजी को वैकल्पिक भाषा के रूप में रखा गया था। यदि त्रिभाषा सूत्रा सपफल हो गया होता तो आज यह विवाद ही पैदा नहीं होता। हिन्दीतर राज्यों में यह सही तरीके से लागू हो गया था लेकिन हिन्दी भाषी राज्यों ने किसी क्षेत्राीय भाषा के बदले संस्कृत को तरजीह दी। इसके पीछे भी भाषा को संवाद और ज्ञान-विज्ञान का माध्यम बनाना नहीं बल्कि सरकारी नौकरियां हासिल करना यानी रोजी-रोटी का सवाल प्रमुख था। इससे जहां हिन्दीतर राज्यों में हिन्दी के प्रति अविश्वास पैदा हुआ, जिसकी परिणति 1960 के दशक में दक्षिण में ‘हिन्दी विरोध्ी आन्दोलन’ के रूप में हुई। ;ज्ञात हो कि एम. करुणानिध् िउसी आन्दोलन की उपज हैं।द्ध वहीं दूसरी ओर अंग्रेजी संवाद, आजीविका और आर्थिक-सामाजिक वर्चस्व की भाषा बनकर दिन दूनी -रात चैगुनी की गति से देश में विस्तार करती गई।
आज स्थिति यह हो गई है कि वु(िजीवियों का एक बड़ा वर्ग अंग्रेजी का विरोध् तो करता है और न चाहते हुए भी उसे अपनाने के लिए मजबूर है। रोजी-रोटी और रोजगार अंग्रेजी में ही सुलभ हैं, सरकारी और आर्थिक तंत्रा पूरी तरह अंग्रेजी में चलता है। इस कारण पढ़ाई-लिखाई का माध्यम भी अंग्रेजी हो गई है। देश का कोई भी हिस्सा हो प्राइवेट स्कूलों की शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही है। सरकारी स्कूलों जिनका माध्यम हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाएं हैं, उनमें कोई भी अपने बच्चों को नहीं पढ़ाना चाहता। इंजीनियरिंग, मेडिकल, बिजनेस, आईटी, उच्च प्रशासनिक सेवाओं और साध्नों-संसाध्नों में इन्हीं अंग्रेजीदां लोगों का वर्चस्व है। अंग्रेजी की इस हैसियत के आगे हिन्दी ही नहीं कोई भी भारतीय भाषा कहीं नहीं टिकती।
दूसरी ओर, सवा अरब की आबादी वाले भारत में एक प्रतिशत से कम लोगों की मातृभाषा या मुख्य भाषा अंग्रेजी है, एक चैथाई आबादी यानी लगभग 30 प्रतिशत ऐसे हैं जो अंग्रेजी जानते हैं या जानना चाहते हैं। वही लोग अंग्रेजी भाषा के माध्यम से देश में राज करना चाहते हैं। ऐसे लोग ही अंग्रेजी को महत्व दिए जाने का तर्क भी यह कहकर देते हैं कि अंग्रेजी हमें दुनिया से जोड़ती है, अंग्रेजी विज्ञान व प्रौद्योगिकी की भाषा है और अंग्रेजी ही  बाजार की भाषा है। इसलिए शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होनी चाहिए है। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि जर्मनी, जापान, प्रफंास, चीन आदि जितने भी गैर अंग्रेजी भाषी राज्य हैं उन्होंने न केवल अपनी भाषा के बल पर तरक्की की है बल्कि सामान्य बोलचाल की भाषा के रूप में भी वहां अंग्रेजी प्रतिवंध्ति है।
इसके ठीक विपरीत भारत की स्थिति है, जहां सोशल मीडिया में हिन्दी के इस्तेमाल करने करने के निर्देश पर बवाल खड़ा हो जाता है। जबकि हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है जो देश में बहुसंख्य आबादी द्वारा बोली जाती है और दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों को छोड़ दिया जाए तो सभी लोग इसे समझते हैं। हिन्दी ही दुनिया की दूसरी बड़ी भाषा है जिसे सबसे अध्कि लोग बोलते है। दक्षिण भारत की चार भाषाओं - तमिल, तेलगू, मलयालम और कन्नड़ को छोड़कर देश की बाकी सभी भाषाएं हिन्दी के समान ही संस्कृत से पैदा हुई हैं।
यह विरोधभासी स्थित आज 2014 में पैदा नहीं हुई है। बल्कि स्वतंत्राता प्राप्ति के समय से ही अंग्रेजीदां लोगों ने देश की सत्ता, संसाध्नों और विकास के तमाम स्रोतों पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए इसे न केवल जीवित रखा बल्कि हरसंभव उसे बड़ाया है। यह एक अच्छी बात है कि मोदी सरकार भारत को एक सशक्त राष्ट्र बनाने का दावा कर रही है। कोई भी राष्ट्र तब ही सशक्त हो सकता है जबकि उस राष्ट्र की जनता को विकास के समान अवसर उपलब्ध् हों। जिस तरह आज देश में मुट्ठीभर अंग्रेजीदां लोगों का वर्चस्व बना हुआ है उसके चलते न तो मोदी सरकार का दावा पूरा होने वाला है और न ही भारत की स्थिति सुध्रने वाली है। रही बात बहुभाषी भारतीय जनमानस की परस्पर एकता और भाषायी सहिष्णुता की तो इसके लिए साहित्य और ज्ञान-विज्ञान के आदान-प्रदान को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। साथ ही इंजीनियरिंग, मेडिकल, बिजनेस, आईटी, उच्च प्रशासनिक सेवाओं में अंग्रेजी के बदले हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को महत्व दिया जाना चाहिए और अंग्रेजी भाषी प्राइवेट शिक्षण संस्थाओं पर यथासंभव अंकुश लगना चाहिए। सबसे महत्वपूण यह है कि संसद और विधन मंडलों में राजनेता उसी भाषा में अपनी बात कहें जिस भाषा में वे जनता से वोट मांगते हैं। इसी से देश में भाषा से कारण पैदा होने वाले विवाद खत्म होंगे और विकास का मार्ग प्रशस्त होगा।

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