बड़े बांधें के विरु( एकजुट हो रहे हैं लोग

गुजरात सरकार के सरदार सरोवर बांध् की उफंचाई 121.92 मीटर से बढ़ाकर 138.73 मीटर करने यानी करीब 17 मीटर बढ़ाने के पफैसले कि विरु( नर्मदा घाटी में उग्र आक्रोश पैदा हो गया है। नर्मदा बचाओ आन्दोलन के बैनर तले किसान, मजदूर, आदिवासी, मछुवारे इस पफैसले के विरोध् में कानूनी और जमीनी लड़ाई लड़ने के लिए लामबंद हो रहे हैं। आन्दोलनकारियों का आरोप है कि सरकार ने पुनर्वास और पर्यावरण की शर्तों को पूरा किए बिना बांध् की उफंचाई बढ़ाने का निर्णय लिया है। डूब क्षेत्रा के अंतर्गत स्थित 245 गांवों में अभी भी 48,000 परिवार यानी लगभग ढाई लाख लोग रह रहे है, जिनमें 45,000 परिवार अकेले मध्य प्रदेश के है। इसके अतिरिक्त बांध् की उफंचाई बढ़ाने से पहले पर्यावरण सुरक्षा के लिए निर्धरित शर्तों को भी पूरा नहीं किया गया है।
प्रसि( सामाजिक आन्दोलनकारी मेध पाटकर का कहना है कि सरदार सरोवर बांध् की उफंचाई बढ़ाए जाने के मामले में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्राी शिवराज सिंह चैहान ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई है तो प्रधनमंत्राी नरेन्द्र मोदी गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्राी के रूप में पेश आए है। नई दिल्ली में दो दिवसीय ध्रना-प्रदर्शन पर बैठे नर्मदा घाटी के बांध् प्रभावित किसानों, आदिवासियों, मछुवारों और मजदूरों को संबोध्ति करते हुए मेध पाटकर ने कहा कि इस आन्दोलन के जरिए वह सरादार सरोवर बांध् परियोजना की सच्चाई को उजागर करेंगी और देशभर में बड़े बांधें के विरु( चल रहे जनान्दोलनों को एकजुट करेंगी। ये लोग सरादार सरोवर बांध् परियोजना से प्रभावित मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र के कई जिला मुख्यालयों में रैलियों एवं ध्रने-प्रदर्शन के बाद केन्द्र सरकार से अपनी गुहार लगाने दिल्ली आए थे। उनका मांग है कि सरादार सरोवर बांध् की उफंचाई बढ़ाने से पहले सरकार उनका पुनर्वास सुनिश्चित करे और उनकी आजीविका के साध्न उपलब्ध् कराए, बिना पुनर्वास के विस्थापन उनके लिए जल समाध् िलेने जैसा ही है।
विस्थापन, निश्चित ही बड़े बांधें के कारण पैदा होने वाली एक बड़ी समस्या है। इसके जवाब में सरकार लोगों ‘जमीन के बदले जमीन’ देने का वास्ता देती है और बड़े बांधें के पक्ष में अध्कि बिजली एवं पीने व सिंचाई का पानी मिलने, रोजगार मिलने एवं बांध् नियंत्राण जैसे तर्क देती है। लेकिन बड़े बांधें से होने वाले जो पफायदे सरकार गिनाती है वे कभी भी पूरे नहीं होते। उल्टे इससे सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय विसंगतियां बढ़ जाती हैं। यही कारण है कि आज भारत ही नहीं पूरी दुनिया में बड़े बांधें का विरोध् हो रहा है। यूरोप और अमेरकिा के कई देशों ने तो बड़े बांधों के बदले छोटे और कम उफंचाई वाले बांध् बनाना शुरू कर दिया है।
इंस्टीट्यूट पफाॅर डेमोक्रेसी एण्ड सस्टेंनेब्लीटी के निदेशक डाॅ. राजेन्द्र रवि बड़े बांधें को मानव सभ्यता के लिए आत्मघाती मानते हुए कहते हैं, ‘बड़े बांधें के निर्माण से पहले पन बिजली उत्पादन और सिंचाई व पीने के पानी की आपूर्ति का एक निश्चित लक्ष्य रखा जाता है लेकिन वह कभी पूरा नहीं होता। बांध् से झील बनती है उसमें पानी का स्तर कभी समान नहीं रहता। वर्षा )तु में वह भर जाता है तो उससे बांध् के टूटने का खतरा पैदा हो जाता है इसलिए झील के पानी को छोड़ना पड़ता है, इससे अकारण बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाती है। इसी तरह जब झील में पानी कम हो जाता है तो पूरा पानी रोककर नदी के प्रवाह क्षेत्रा को सूखे व अकाल की स्थिति का सामना करने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। दोनों ही स्थितियों में न तो लक्ष्य के मुताबिक न बिजली पैदा हो पाती है, न पानी मिलता है और न ही बाढ़ नियंत्राण हो पाता है। इसके अलावा बड़े बांधें से गांव, कस्बे, जंगल आदि उसमें डूब जाते हैं तो पूरी सभ्यता और पारिस्थितिकी व्यवस्था नष्ट हो जाती है।
बड़े बांधें के पक्ष में एक और तर्क स्थानीय लोगों को रोजगार मिलने का दिया जाता है। इस तर्क के बल पर स्थानीय यानी बांध् से प्रभावित होने वाले लोगों को तैयार किया जाता है। करीब दीन दशकों से किसानों, मजदूरों और समाज के कमजोर लोगों के अध्किारों के लिए संघर्षरत जन संघर्ष वाहिनी के नेता भूपेन्द्र सिंह रावत इसे सरकार और बांध् निर्माता कंपनियों का बसे बड़ा झूठ कहते हैं। श्री रावत कहते हैं कि बड़े बांधों के कारण कृषि, पशुपालन एवं इनसे संबंध्ति व्यवसायों से आजीविका चलाने वाले जितने लोग बेघर एवं बेरोजगार हो जाते हैं, उसका दसवें हिस्से को भी बांध् परियोजना में काम नहीं मिलता और वह भी केवल परियोजना का निर्माण होने तक। उसके बाद तो स्थानीय लोग उसमें अपवाद स्वरूप ही रह जाते हैं।
बांध् परियोजना का निर्माण आरंभ करने से पहले नियमानुसार उससे प्रभावित होने वाले लोगों का पुनर्वास करना जरूरी है। अलग-अलग मामलों में न्यायालय ने भी सरकारों को यह आदेश दिया है। लेकिन व्यवहार में पहले तो बांध् से प्रभावित होने वाले लोगों का आकलन सही तरीके से नहीं किया जाता। मसलन टिहरी बांध् परियोजना को ही लें तो सरकार उन्हीं लोगों को बांध् प्रभावित मानती हैं जिनके घर, खेत डूब क्षेत्रा में आ चले गए जबकि टिहरी बांध् से बनी झील से लगे क्षेत्रों के लोगों को भी इसका खामियाजा कई तरह से भुगतना पड़ रहा है, झील के कारण स्थानीय स्तर पर जलवायु बदलने से उनकी कृषि पर बुरा प्रभाव पड़ा है, आवागमन मुश्किल हो गया है और उनके रोजगार छिना है लेकिन सरकार की नजरों में वे बांध् प्रभावित नहीं हैं।
इसके साथ ही जिन लोगों को बांध् प्रभावित माना जाता है तो उनका भी पुनर्वास नहीं हो पाता है या पुनर्वास महज कागजी होता है। माटू जन संगठन से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा टिहरी बांध् विस्थापितों के संबंध् में दायर याचिका की सुनवाई पर उच्च न्यायालय ने 3 नवंबर 2011 को टीएचडीसी को टिहरी बांध् विस्थापितों के पुनर्वास के लिए 102.99 करोड़ रुपए देने का निर्देश दिया था जबकि सरकारें 2005 में ही पूर्ण पुनर्वास की घोषणा कर चुकी थी। इस तरह देशभर में कई मामले हैं जिनमें सरकार के अनुसार विस्थापितों का पुनर्वास हो गया है और व्यवहार में वे अभी भी दर-ब-दर है। पर्यावरणविद वाॅल्टर पफर्नांडीज के अनुसार अब तक देश में बड़े बांधें के कारण करीब 3 करोड़ लोग विस्थपित हुए हैं। इनमें आध्े से भी कम लोगों का ही पुनर्वास हुआ है।
पुनर्वास के नाम पर होने वाला घोटाला भी विस्थापन से जुड़ा एक और पहलू है। नर्मदा बचाओ आन्दोलन के अनुसार मध्य प्रदेश में पुनर्वास के नाम पर 1,000 करोड़ का घोटाला हुआ है। 3,000 पफर्जी रजिस्ट्रियां बनाकर नेताओं, अपफसरों और दलालों ने विस्थापित गरीबों का हक मारा है। पांच साल पहले प्रकाश में आए इस घोटाले की अभी भी जांच चल रही है। इसी तरह का मामला कुछ समय पहले टिहरी के विस्थापितों के पुनर्वास के संबंध् में भी सामने आया था, जिसमें तत्कालीन मुख्यमंत्राी के करीबी लोगों द्वारा विस्थापितों को मिली जमीन पफर्जी रजिस्ट्रिी बनकार बेचेे जाने की बात कही गई थी।
सरकार कहती है कि बड़े बांध् बाढ़ नियंत्राण में कारगर भूमिका निभाते हैं। लेकिन सत्यता इसके विपरीत है। बड़े बांध् अक्सर भयंकर बाढ़ का कारण बनते हैं। कुछ वर्ष पहले गुजरात में मोरवी बांध् के टूटने पर तीन गांव बह गए थे। ओड़ीसा के हरीकुंड बांध् का पानी छोड़े जाने से भी भयंकर तबाही मची थी। हाल ही में हिमाचल प्रदेश में ब्यास नदी पर बने लारजी बांध् का पानी छोड़े जाने से 25 छात्रों की मौत हो गई थी। हरियाणा में यमुना नदी पर बने हथिनी कुंड बैराज का पानी छोड़े जाने पर दिल्ली और उत्तर प्रदेश में बाढ़ जैसी स्थितियां पैदा हो जाती हैं। इस तरह लगभग सभी बड़े बांधें का पानी छोड़े जाने पर बाढ़ जैसी स्थितियां पैदा हो जाती हैं।
पर्यावरणीय क्षति अर्थात पारिस्थितिकी असंतुलन बड़े बांधें कारण होने वाला ऐसा नुकसान है जिसकी कभी भरपाई नही हो सकती। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय बड़े बांधें निर्माण से पहले पर्यावरणीय नुकसान का आकलन तो करता है और क्षतिपूर्ति की शर्तें भी रखता है लेकिन उससे जो तात्कालिक और स्थाई नुकसान होते हैं उनसे बचाव का कोई तरीका नहीं है। जून 2013 में उत्तराखण्ड में आई विनाशकारी आपदा का मुख्य कारण ही प्रकृति की संवेदनशीलता को देखे बिना बनाए जा रहे बांध् रहे हैं। इस तरह की घटना पूर्वाेत्तर के राज्यों में भी आए दिन होती रहती हैं, जहां कि सैकड़ों बड़े बांध् बनाए जा रहे हैं। इसके साथ बड़े बांध् से बनने वाली झील सें बहुमूल्य वन संपदा और जीव जंतु नष्ट हो जाते हैं, जो जीवन चक्र और प्रकृति के बीच संतुलन बनानए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यही नहीं बड़े बांधें के कारण नदी के पानी का स्वरूप बदल जाता है, बांध् से नदी में बाद बनने लगती है जिसमें नदी का पानी जल्दी प्रदूषित हो जाता है।
पर्यावरणविदों की सबसे बड़ी चिंता आज भूमंडलीय उफष्णता यानी ग्लोबल वार्मिंग है। बड़े बांध् ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने में अहम् भूमिका निभाते हैं। वैज्ञानिक कापफी पहले इस बात का खुलासा कर चुके हैं कि बड़े बांध् ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने वाली मिथेन गैस का उत्सर्जन करते हैं। भारत में इस समय 5100 बड़े बांध् हैं जो करीब 3.35 करोड़ टन मिथेन गैस उत्सर्जित करते हैं। दुनियाभर में इस तरह के बांध् और जलाशयों की संख्या 52 हजार के आसपास है जो मिथेन गैस उत्सर्जित करते हैं। वैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि बांध् की उम्र बढ़ने के साथ-साथ मिथेन गैस के उत्सर्जन में भी वृ(ि होती जाती है।
बड़े बांधें के भूमंडलीय दुष्प्रभावों को देखते हुए वर्ष 2000 में विश्व बांध् आयोग का गठन किया गया था। आयोग ने दुनियाभर के सभी बड़े बांधें को तोड़ने और भविष्य में छोटे बांध् बनाने की सलाह दी थी। हमारे देश में 126 बड़े बांध् ऐसे हैं जो सौ साल से अध्कि पुराने हैं। विश्व बैंक ने 1990 के दशक में ही भारत के 56 बड़े बांधें को खतरनाक मान लिया था। इसके बावजूद न तो बड़े बांधें को तोड़ा गया और न ही बड़े बांधें के निर्माण में कमी आई।
बहरहाल, सरदार सरोवर बांध् की उफंचाई बढ़ाए जाने से जहां नर्मदा घाटी के बांध् प्रभावित लोगों के समक्ष अस्तित्व संकट का खतरा बढ़ा है और वे अपने अध्किारों की रक्षा के लिए लड़ने, मरने को तैयार हैं तो वहीं बड़े बांधें को लेकर एक बार पिफर नए सिरे से विमर्श तेज हुआ है। सामाजिक आन्दोलनकारी और पर्यावरणविद बड़े बांधें से होने वाले नुकसान से बराबर आगाह कर रहे हैं। लिहाजा सरकार को बड़े बांधें के स्थान पर छोटे बांध और पन बिजली परियोजनाएं बनाने पर जोर देना चाहिए। विशेषज्ञों के अध्ययन से यह पहले ही स्पष्ट हो चुका है कि छोटी पन बिजली योजनाएं कम लागत पर बनने के साथ-साथ व्यय की तुलना में अध्कि बिजली रोजगार प्रदान करती हैं। उनसे न तो विस्थापन की समस्या पैदा होती है और नही पर्यावरण को क्षति पहुंचती है। नर्मदा घाटी से लेकर उत्तराखण्ड तक कई स्थानों में स्वैच्छिक स्तर पर इसका प्रयोग भी हुए है, जो कि सपफल साबित हुए हैं।

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