राजनैतिक टकराव को आमंत्रित करता राज्यपालों को पद छोड़ने का आदेश

यह तो पहले से ही कहा जा रहा था कि प्रधनमंत्राी नरेन्द्र मोदी किसी पर भरोसा नहीं करते, वह शासन अपने मजबूत हाथों से चलाते हैं। यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को अपने पद से इस्तीपफा देने के आदेश से इसी बात की पुष्टि होती है। यद्यपि यह आदेश गृह सचिव अनिल गोस्वामी ने मौखिक रूप में दिया है परंतु इसके पीछे प्रधनमंत्राी की ही इच्छा बताई जा रही है। चर्चा है कि मोदी सरकार को यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों पर भरोसा नहीं है इसी कारण उन्हें पछ छोड़ने को कहा गया है।
इस आदेश के आधर पर उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बी. एल. जोशी और छत्तीसगढ़ के राज्यपाल शेखर दत्त ने इस्तीपफा दे दिया है जबकि पंजाब के राज्यपाल शिवराज पाटिल, पं. बंगाल के एम. के. नारायणन, असम के जे. बी. पटनायक, केरल की राज्यपाल शीला दीक्षित, राजस्थान की मारग्रेट अलवा, गुजरात की कमला बेनीवाल, त्रिपुरा के देवेन्द्र कांेवर ने इस्तीपफा देने से इंकार कर दिया है तो महाराष्ट्र के राज्यपाल शंकर नारायणन और कर्नाटक के राज्यपाल हंसराज भारद्वाज ने उचित प्राध्किार से आदेश मिलने पर विचार करने की बात कही है। इससे राज्यपालों को हटाए जाने और उनकी नियुक्ति को लेकर राजनैतिक टकराव की आशंका बढ़ गई है।
केन्द्र में सरकार बदलने पर पूर्ववर्ती सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को उनके पद से हटाना और नए राज्यपालों की नियुक्त नई बात नहीं है। 1977 में पहली बार केन्द्र में सत्ता परिवर्तन के साथ ही इसकी शुरूआत हो गई थी, जो आज एक परंपरा सी बन गई है। वर्तमान मोदी सरकार ने पांच राज्यों के राज्यपालों के इस्तीपफे मांगकर उसी परंपरा का निर्वाह किया है। संविधन मर्मज्ञों और विरोधी दलों के नेताओं ने विरोध् किया है और सरकारिया आयोग का हवाला देते हुए इसे संवैधनिक व्यवस्था से छेड़छाड़ बताया है।
ज्ञात हो कि भारत की संघीय व्यवस्था में राज्यपाल का पद संवैधनिक है। वह राज्य में संघ का प्रतिनिध्त्वि करता है और राज्य में कार्यपालिका का सर्वोच्च अध्किारी होता है, जिसकी नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और वह केन्द्र सरकार द्वारा नामित व्यक्ति होता है। सामान्यतः राज्यपाल की पदावध् िपांच वर्ष होती है जबकि स्वयं राज्यपाल अपने पद से इस्तीपफा दे सकता है अथवा राष्ट्रपति उसे पद से हटा सकता है। राज्यपाल को राज्य में कार्यपालिका, विधायी, वित्तीय और न्यायिक ;मृत्युदंड को छोड़करद्ध अध्किार प्राप्त होते हैं। राज्यपाल इन अध्किारों का उपयोग राज्य मंत्रिमंडल की सलाह पर, केन्द्र सरकार के निर्देश पर या स्वविवेक से करता है। भारत का कोई भी नागरिक जिसकी उम्र 35 वर्ष हो देश के किसी भी राज्य का राज्यपाल हो सकता है, प्रशासनिक सक्षमता और निष्पक्षता एक राज्यपाल की बुनियादी परंतु अघोषित योग्यता मानी जाती है।
राज्यपाल की इस संवैधनिक स्थिति का उपयोग केन्द्र सरकार अपने राजनैतिक हितों की पूर्ति के करने लगी है। आपातकाल के दौरान इंदिरा गांध्ी द्वारा अपनी ही पार्टी की राज्य सरकारों एवं मुख्यमंत्रियों के विरु( जमकर राज्यपालों का इस्तेमाल किया। नतीजतन 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने पर ऐसे राज्यपालों को पदच्युत कर दिया गया जो इंदिरा गांध्ी की कठपुतली कहे जाते थे। इसकी पुनरावृति 1980 में इंदिरा गांध्ी की सत्ता में वापसी के बाद हुई। इसके साथ ही राज्यपाल का पद विरोध्ी पार्टी विरोध्ी पार्टी द्वारा शासित राज्य सरकार को अस्थिरकर राजनैतिक उठापटक का माध्यम बन गया। दल-बदल विरोध्ी कानून बनने के बाद इसमें कुछ कमी जरूर आई लेकिन राज्यपालों पर केन्द्र सरकार का नियंत्राण समाप्त नहीं हुआ।
इसी बीच जब कई राज्यों के राज्यपालों ने अपने पदाध्किारों का उपयोग स्वविवेक अथवा राज्य के मंत्रिमंडल की सलाह पर करना शुरू किया तो केन्द्र सरकार ने अपनी पार्टी के निष्ठावान नेताओं को राज्यपाल बनाना शुरू कर दिया। इसी क्रम में ऐसे नेताओं को राज्यपाल बनाने की परंपरा की शुरूआत हुई जिन्हें सत्तारूढ़ पार्टी केन्द्रीय कैबनेट में शामिल नहीं कर पाती। यह प्रवृति पार्टी के निष्ठावान नेताओं का पुनर्वास और उन पर पार्टी की अनुकंपा कही जाने लगी।  मोदी सरकार द्वारा जिन राज्यपालों को पद छोड़ने के लिए कहा गया है और उनके स्थान पर भाजपा के जिन नेताओं को राज्यपाल नियुक्त किए जाने की चर्चा है वे सभी इसी श्रेणी में आते हैं।
राज्यपालों को उनका कार्यकाल पूरा होने से पहले पद से हटाने के मोदी सरकार के इस पफैसले का पिछली सरकार द्वारा ऐसा किए जाने की अपेक्षा इसका विरोध् अध्कि हो रहा है तो इसके दो कारण है। एक स्वयं प्रधनमंत्राी नरेन्द्र मोदी और दूसरा सर्वोच्च न्यायालय का वह पफैसला है जिसमें राज्यपालों को मनमाने तरीके न हटाए जाने की बात कही गई है। लोकसभा चुनाव के दौरान श्री मोदी ने बार-बार ‘नई राजनैतिक संस्कृति’ का विकास करने का दावा कर रहे थे। इसी कारण कांग्रेसी राजनीति से उफब चुकी युवा पीढ़ी उनके समर्थन में आगे आई थी। लेकिन प्रधनमंत्राी बनने के बाद उसी राजनैतिक संस्कृतिक को आगे बड़ा रहे हैं जिसका वह कड़ा विरोध् करते रहे हैं।
दूसरी बात, 2004 में जब यूपीए बनने पर एनडीए सरकार द्वारा नियुक्त तीन राज्यपालों को हटा दिया था तो इसके विरु( भाजपा नेता ओ. पी. सिंघल ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी, 2010 में उस याचिका पफैसला सुनाते हुए सर्वाेच्च न्यायालय ने राज्यपालों को पद से हटाए जाने के ठोस और वैध् कारण होने की बात कही थी। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पैफसले में कहा था कि केन्द्र सरकार किसी भी राज्यपाल को उसका कार्यकाल पूरा होने से पहले केवल दुराचरण और अनियमितता के मामले में हटा सकती है। लेकिन गुजरात दंगों के मामले में न्यायालय के पफैसले का सम्मान करने की बात कहने वाले श्री मोदी का ध्यान इतने महत्वपूर्ण पफैसले की ओर नहीं गया।
बहरहाल, मोदी सरकार के इस पफैसले से एक राजनैतिक टकराव की आशंका बढ़ गई है। एक ओर भाजपा के कई वरिष्ठ नेताओं, जिनमें कल्याण सिंह, केसरीनाथ त्रिपाठी, यशवंत सिन्हा, कैलाश जोशी, बलराम दास टंडन आदि शामिल हैं, को राज्यपाल नियुक्त किए जाने की चर्चा है। ये नेता न केवल अपने-अपने राज्यों में प्रभावी है बल्कि पार्टी हाईकमान को भी प्रभावित करते हैं। जिस तरह गृहमंत्राी राजनाथ सिंह ने राज्यपालों को पद छोड़ने का तर्क दिया है इससे स्पष्ट होता है कि सरकार पर भाजपा अपने वरिष्ठ नेताओं को राज्यपाल बनाए जाने का दबाव बना हुआ है। दूसरी ओर यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त अध्कितर राज्यपालों ने इस्तीपफा देने से इंकार करते हुए कहा है कि केन्द्र सरकार चाहे तो उन्हें बर्खास्त कर सकती है। इसी बीच कई राज्यपालों ने राष्ट्रपति से मुलाकात भी की है। राष्ट्रपति से मुलाकात करने के बाद उन्होंने स्पष्ट कहा है कि वे इस्तीपफा देने को तैयार नहीं हैं।
ध्यान देने की बात यह भी है कि सरकारिया आयोग की सिपफारिशें, सर्वोच्च न्यायालय का पफैसला और संविधन मर्मज्ञों की राय राज्यपालों को हटाए जाने के विरु( हंै। ऐसी स्थिति में महामहिम राष्ट्रपति केन्द्र सरकार की सिपफारिश को मान ही लेंगे कहना कठिन है। स्वतंत्रा भारत के इतिहास में ऐसा कई बार हुआ भी है कि जबकि महामहिम राष्ट्रपति ने केन्द्र सरकार की सिपफारिशों को मानने से इंकार किया है। इस समय देश की जनता प्रधानमंत्राी नरेन्द्र मोदी से कई उम्मीदें लगाए हुए है। उनके समर्थक ही नहीं विरोध्ी भी उनके भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोजगारी से मुक्ति दिलाने वाली और सुशासन कायम करने वाले दावे की अमलीजामा पहनाते हुए देखना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में अनावश्यक संवैधानिक टकराव सरकार के प्रति अविश्वसनीयता को ही बढ़ाएगा। लिहाजा मोदी सरकार को राज्यपालों को उनके पद से हटाए जाने के बजाय राज्यपालों की नियुक्ति के तरीकों को दुरुस्त करना चाहिए। यही संविधन के मर्मज्ञ, पूर्व राज्यपाल और राजनीति के जानकार भी चाहते हैं।

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